उर्दू शायरी में मीर तक़ी 'मीर' एक ऐसा नाम है जिनके बारे में खुद ग़ालिब ने कहा था -
'रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
कहते हैं अगले जमाने में कोई 'मीर' भी था'
मीर मुहम्मद तक़ी 'मीर' (Mir Muhammad Taqi 'Mir') 18वीं सदी के एक महत्वपूर्ण उर्दू शायर थे। उनका जन्म फरवरी 1723 में आगरा में हुआ माना जाता है। जब वे किशोर ही थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई । पिता के गुजर जाने के बाद मीर दिल्ली आ गए।
इसके बाद वे दिल्ली में ही काफी लंबे समय तक रहते रहे। जब अहमद शाह अब्दाली के कारण दिल्ली में अशांति बढ़ गई तो 1782 में वे आसफ-उद-दौला के निमंत्रण पर लखनऊ आ गए। अपने जीवन का शेष वक़्त उन्होने वहीं गुजारा। सितंबर 1810 में उनकी मृत्यु हो गई।
शेर शायरी और गज़लों की दुनिया में मीर (Meer Taqi 'Meer') गिनती अब तक के सर्वश्रेष्ठ शायरों में होती है। उनके समकालीन शायरों मिर्ज़ा मोहम्मद रफी 'सौदा' और ग़ालिब ने उर्दू शायरी में मीर के महत्व को शेरों के माध्यम से रेखांकित किया है।
प्रस्तुत हैं 'मीर' के कुछ बेहद प्रसिद्ध शेर -
Famours Sher-O-Shayari of Meer Taqi Meer in Hindi
इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है
(ना-तवाँ = कमजोर)
कोई तुमसा भी काश तुम को मिले
मुद्दआ हमको इंतिक़ाम से है
पत्ता-पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग तो सारा जाने है
'मीर' अमदन भी कोई मरता है
जान है तो जहां है प्यारे
(अमदन= जान बूझ कर )
यही जाना कि कुछ न जाना हाए
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम
दिल मुझे उस गली में ले जाकर
और भी खाक़ में मिला लाया
सख्त काफ़िर था जिस ने पहले 'मीर'
मजहब-ए-इश्क़ इख्तियार किया
दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे सुनो हो ये बस्ती उजाड़कर
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है
परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभों की खुदा कर चले
(परस्तिश = पूजा, आराधना, इबादत; याँ = यहाँ)
बैठने कौन दे है फिर उसको
जो तेरे आस्तां से उठता है
राहे-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या
मेरे रोने की हकीकत जिसमें थी
एक मुद्दत तक वो कागज नम रहा
जीना मिरा तो तुझको गनीमत है ना-समझ
खींचेगा कौन फिर ये तिरे नाज़ मिरे बाद
उम्मीदवार-ए-वादा-ए-दीदार मर चले
आते ही आते यारो क़यामत को क्या हुआ
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