मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी | Classical Sher Shayari - Mirza Ghalib

मिर्ज़ा ग़ालिब - एक महान शायर 

शायरों का शायर अगर किसी एक व्यक्ति को कहा जा सकता है तो वह हैं सिर्फ और सिर्फ मिर्ज़ा ग़ालिब। खुद अपने बारे में एक बार ग़ालिब ने कहा था - 

 "हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे

कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और "

इस महान शायर का असली नाम मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग खां था और वे 'ग़ालिब' के उपनाम से लिखते थे। कहीं कहीं उन्होने अपना उपनाम 'असद' भी प्रयोग किया है। 

उनका जन्म 27 दिसंबर 1796 को आगरा में हुआ था। उन्होने अपने माता-पिता को बचपन में ही खो दिया था इसलिए उनकी प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा कैसे हुई इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है । हालांकि उन्होने अपने बारे में कहा था कि उन्होने 11 साल की उम्र से ही शेर शायरी शुरू कर दी थी। 

उन्होने फारसी और उर्दू में मुख्यतः रहस्यमय-रोमांटिक शैली में शायरी की जिन्हें ग़ज़ल कहा जाता है। उनकी विद्वता से प्रभावित होकर बहादुर शाह जफर 'द्वितीय' ने उन्हें मुग़ल दरबार में महत्वपूर्ण स्थान दिया था। 15 फरवरी 1869 को शेरो-शायरी के इस अज़ीम शाहकार का देहावसान हो गया। 

ग़ालिब की मशहूर शायरी 

ग़ालिब के एक-दो नहीं, सैकड़ों शेर ऐसे हैं जो आम जनजीवन में मुहावरों की तरह इस्तेमाल होते रहते हैं। प्रस्तुत हैं कुछ चुनिन्दा शेर - 
बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना 
आदमी को भी मयस्सर नहीं इनसां होना 

की मेरे कत्ल के बाद उसने जफा से तौबा 
हाय उस जूद पशेमां का पशेमां होना 

आज वा तेगो कफ़न बांधे हुये जाता हूँ मैं 
उज्र मेरे कत्ल करने में वो अब लाएँगे क्या 

ये न थी हमारी किस्मत जो विसाले यार होता 
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता 

तिरे वादे पे जिये हम तो ये जान झूठ जाना 
कि खुशी से मर न जाते अगर एतबार होता 

थी खबर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे 
देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ 

ले तो लूँ सोते में उसके पाँव का बोसा मगर 
ऐसी बातों से वो काफिर बदगुमाँ हो जाएगा 

एतबार-ए-इश्क़ की खाना खराबी देखना 
गैर ने की आह लेकिन वो खफा मुझ पर हुआ 

मैं और बज़्म-ए-मय से यूं तिश्ना-काम आऊँ 
गर मैंने की थी तौबा साकी को क्या हुआ था 

न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता, तो खुदा होता 
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता 

आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए 
साहब को दिल न देने पे कितना गुरूर था 

हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यकता थे 
बेसबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमां अपना 

जाते हुये कहते हो क़यामत को मिलेंगे 
क्या खूब, कयामत का है गोया कोई दिन और 

कर्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि, हाँ 
रंग लाएगी हमारी फाक-मस्ती एक दिन 

'ग़ालिब' छूटी शराब पर अब भी कभी कभी 
पीता हूँ रोजे-अब्र शबे-माहताब में 

(मिर्ज़ा ग़ालिब के कुछ और शेर पोस्ट के अगले भाग में ... )



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