मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक़ की शायरी | Shayari of Zauq in Hindi

 19वीं सदी के बड़े शायरो में से एक नाम है शेख मुहम्मद इब्राहीम 'ज़ौक़' (Sheikh Mohammad Ibrahim 'Zauq') का। सन 1790 से लेकर 1854 तक जिये 'ज़ौक़' ने मात्र 19 साल की उम्र में ही मुग़ल दरबार में शायर के रूप में अपना स्थान बना लिया था। वे ग़ालिब के समकालीन थे और ऐसा कहा जाता है कि शायरी को लेकर दोनों में आपस में प्रतिद्वंद्विता भी चलती रहती थी। 

बेशक आज ग़ालिब का नाम शायरी की दुनिया में सबसे ऊपर माना जाता है लेकिन कहते हैं कि अपने जीवनकाल में ज़ौक़ ग़ालिब से ज्यादा लोकप्रिय शायर थे। 

खैर, प्रस्तुत हैं 'ज़ौक़' के कुछ प्रसिद्ध शेर, जो अपने आप में उनके एक श्रेष्ठ शायर होने की गवाही देते हैं - 

Famous Sher-O-Shayari of Sheikh Ibrahim 'Zauq' 

ज़ाहिद शराब पीने से काफ़िर हुआ मैं क्यों 
क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया  

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे 
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे 

ऐ 'ज़ौक़' तकल्लुफ में है तकलीफ़ सरासर 
आराम में है वो जो तकल्लुफ़ नहीं करता 

ऐ 'ज़ौक़' देख दुख्तर-ए-रज को न मुँह लगा 
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़िर लगी हुई 

मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे 
न दवा याद रहे और न दुआ याद रहे 

लाई हयात, आए, क़ज़ा ले चली, चले 
अपनी खुशी न आए, न अपनी खुशी चले 

हम रोने पे आ जाएँ तो दरिया ही बहा दें 
शबनम की तरह से हमें रोना नहीं आता 

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे 
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले 

मस्जिद में उसने हमको आँखें दिखा के मारा 
काफ़िर की शोख़ी देखो, घर में खुदा के मारा 

हक़ ने तुझ को इक ज़बान दी और दिये हैं कान दो 
इस के ये मानी कहे इक और सुने इंसान दो 

ऐ शमआ तेरी उम्र-ए-तबी-ई है एक रात 
हँस कर गुज़ार दे इसे या रोकर गुज़ार दे 
(उम्र-ए-तबी-ई = प्राकृतिक आयु)


इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाये 'जौक़' पर दिल्ली की गलियां छोडकर 

क्या देखता है हाथ मिरा छोड़ दे तबीब 
याँ जान ही बदन में नहीं नब्ज़ क्या चले 
(तबीब= चिकित्सक)

रहता सुख़न से नाम क़यामत तलक ऐ' 'जौक़'
औलाद से तो है यही दो पुश्त चार पुश्त 

हम नहीं वो जो करें खून का दावा तुझ पर 
बल्कि पूछेगा खुदा भी तो मुकर जाएँगे 

ना हुआ पर ना हुआ 'मीर' का अंदाज़ नसीब 
'जौक़' यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा 

पिला मय अश्करा हमको किस की साक़िया चोरी 
खुदा से जब नहीं चोरी तो फिर बंदे से क्या चोरी 
(अश्करा = खुल्लमखुल्ला)

बाद रंजिश के गले मिलते हुये रुकता है दिल 
अब मुनासिब है यही कुछ मैं बढ़ूँ कुछ तू बढ़े 

रिन्द-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू
तुझको पराई क्या पड़ी अपनी नबेड़ तू 

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