अंधेर नगरी चौपट राजा की कहानी | Andher Nagari Chaupat Raja Ki Kahani - Lok katha

एक महात्मा जी देश भ्रमण को निकले थे. महात्माजी बड़े विद्वान् और दूरदर्शी थे. साथ में रामदास नाम का उनका एक शिष्य भी था. एक दिन गुरु और शिष्य दोनों भ्रमण करते करते एक नगरी में पहुंचे. दोनों ने नगर के बाहर ही एक मंदिर के नज़दीक अपना डेरा डाल लिया. 

अब गुरूजी ने रामदास को एक धेला देकर कहा - "जा बेटा, नगर से खाने पीने की सामग्री खरीद ला." 

पैसे कम देखकर रामदास ने कहा कि इतने कम पैसों में खाने पीने की भला क्या सामग्री आएगी लेकिन उनके पास और पैसे थे ही नहीं सो मजबूरी थी. तब गुरूजी ने कहा कि इसमें जो आ जाए वही खरीद ला. 

शिष्य बाज़ार से लौटा तो उधर से बोरा भर सामान खरीद कर लौटा. 

गुरूजी ने पूछा - "इतने कम पैसों में इतना सामान कैसे आ गया ?"

रामदास बोला - "गुरूजी, इस नगरी का नाम अंधेर नगरी है और यहाँ के राजा का नाम चौपट है. यहाँ हर सामान एक ही भाव बिकता है चाहे सोना हो या मिटटी. हर दूकान पर लिखा है - टका सेर भाजी, टका सेर खाजा, अंधेर नगरी चौपट राजा ! इसीलिए एक धेले में ही इतना सामान आ गया."

उस रात गुरूजी ने फिर कुछ नही कहा. सुबह होते ही बोले - "बेटा, अब जितनी जल्दी हो सके यहाँ से प्रस्थान करो, यहाँ रहना ठीक नहीं."

रामदास बोला - "गुरूजी, मुझे तो यह नगर बड़ा अच्छा लगा. यहाँ खाने पीने की मौज है. हर चीज़ एक ही भाव बिकती है. हमें यहीं डेरा ज़माना चाहिए."

गुरूजी बोले - "बेटा, यहाँ रहना ठीक नहीं, ये अंधेर नगरी है और यहाँ का राजा चौपट है. यहाँ हर चीज़ एक समान भाव से बिकती है मतलब यहाँ सच और झूठ भी एक बराबर माना जाता होगा. यहाँ कभी भी मुसीबत आ सकती है इसलिए यहाँ से चलो."

मगर शिष्य को गुरु की यह सलाह अच्छी नहीं लगी. वह बोला - "गुरूजी, इससे अच्छी जगह कहाँ मिलेगी? यहाँ जो चाहे वह खाओ पियो, सब एक ही भाव में ! मैं तो अब यहाँ से कहीं नहीं जाऊँगा."

गुरूजी ने अपने शिष्य रामदास को बहुतेरा समझाया मगर वह अंधेर नगरी को छोड़कर जाने को किसी भी तरह राजी नहीं हुआ. हार कर गुरूजी उसे वहीं छोड़कर अपने देशाटन पर आगे बढ़ गए. 

गुरूजी के चले जाने के बाद शिष्य रामदास रोज दोपहर चिमटा बजाता हुआ भिक्षाटन के लिए बाजार में निकलता और भिक्षा में मिले हुए पैसों से खूब हलवा पूरी, मिठाई और दूसरे पौष्टिक चीज़ें खाता. कुछ ही दिनों में वह खा खा कर खूब मोटा तगड़ा हो गया. 

फिर एक दिन वही हुआ जिसका अंदेशा गुरूजी जताकर गए थे....

एक दिन किसी दूकान की दीवार गिर जाने से एक मजदूर दबकर मर गया. कोतवाल के पास खबर पहुंची तो वह तुरंत दुकानमालिक को पकड़ कर राजा के सामने पेश करने के लिए ले आया. 

दूकान मालिक चौपट राजा से बोला - "महाराज, इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं, दीवार तो राज मिस्त्री ने कमजोर बनाई थी."

राजा ने तुरंत राज मिस्त्री को पकड़ बुलवाया. राज मिस्त्री हाथ जोड़कर बोला - "अन्नदाता, लगता है मजदूर ने गारे में पानी ज्यादा मिलाया था इसीलिए दीवार कमजोर बनी."

मजदूर पकड़कर लाया गया. वह बोला - "महाराज, इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं, माश्की ने पानी ज्यादा डाल दिया होगा."

माश्की पकड़कर बुलाया गया. माश्की बोला - "महाराज, इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं. जिस समय मैं गारे में पानी डाल रहा था, उसी समय रामदास नाम का एक बाबा चिमटा बजाता हुआ वहां से गुजरा जिससे मेरा ध्यान बंट गया और गारे में पानी ज्यादा हो गया."

अंततः रामदास को बुलवाया गया. उस बेचारे को कोई ऐसी बात न सूझी कि जिसे कहकर अपना दोष किसी और पर डाल देता. वह अंधेर नगरी के तौरतरीकों से अच्छी तरह वाकिफ न था. लिहाज़ा राजा ने कहा कि असली कुसूरवार वही है और उसे सरेआम फांसी पर लटकाए जाने की सजा सुना दी. 

सिपाही पकड़कर जब उसे फांसी पर चढाने ले चले तो वह रोने चिल्लाने लगा. अब उसे गुरूजी और उनकी कही बात याद आने लगी. "हाय मैंने गुरूजी का कहना नहीं माना ... हाय गुरूजी कहाँ हो, बचाओ ! बचाओ !"

दैवीय प्रेरणा से गुरूजी भी उस दिन रास्ता भटककर वापस अंधेर नगरी में ही आ चुके थे. उन्हें जब पता चला कि उनके शिष्य को फांसी पर चढाने ले जाया जा रहा है तो बेचारे भागे भागे फांसी स्थल पर चले आये. 

फांसी-स्थल पर राजा एक ऊंचे से मंच पर अपने मंत्री के साथ बैठा हुआ था. दूसरी ओर तमाम जनता फांसी का तमाशा देखने के लिए जुटी हुई थी. गुरूजी तुरंत दौड़कर वहाँ पहुंचे जहां राजा बैठा हुआ था. चिल्लाकर बोले - "महाराज, इस आदमी को फांसी मत दीजिये. मैं चाहता हूँ कि उसके बदले मुझे फांसी दे दी जाय !"

राजा ने आश्चर्य से कहा - "भला क्यों ? आप इसकी जगह पर क्यों मरना चाहते हैं ?"

गुरूजी गंभीर मुद्रा बना कर बोले - "ये गूढ़ रहस्य की बात है महाराज, आप जानकर क्या करेंगे ? आप तो बस जल्दी से जल्लाद को आदेश दीजिये कि रामदास को हटाये और मुझे फांसी चढ़ाए."

अब तो राजा की उत्सुकता और बढ़ गई. बोला - "वह गूढ़ रहस्य जल्दी से मुझे बताओ वरना तब तक न मैं रामदास को फांसी चढ़ने दूंगा न तुम्हें."

गुरूजी ने फिर राजा को टालमटोल करने की कोशिश की लेकिन राजा वह गूढ़ रहस्य जानने की जिद पर अड़ गया. आखिरकार गुरूजी राजा के पास जाकर धीरे से बोले - 

गुरूजी बोले - "महाराज, मैंने अभी अभी ज्योतिष गणना करके यह पता लगाया है कि आज इस समय की घडी मरने के लिए बहुत ही शुभ है. आज इस घडी में जो मरेगा वह सीधा स्वर्ग जाएगा ! इसलिए जल्दी कीजिये, मुझे फांसी चढ़वाइए ताकि मैं सीधा स्वर्ग जा सकूँ. समय बीता जा रहा है कुछ ही मिनट शेष है."

"वाह जी वाह," राजा हाथ नचाकर बोला, "इतने गूढ़ रहस्य की बात मुझसे छिपाकर चुपचाप चोरी चोरी स्वर्ग चले जाना चाहते थे. जानते हो यहाँ का राजा मैं हूँ. स्वर्ग जाने का सबसे पहला अधिकार मेरा है, समझे ! अब फांसी तुम नहीं चढोगे, फांसी मैं चढूँगा !"

इतना सुनते ही मंत्री बोला - "महाराज, मैं भी आपके साथ स्वर्ग जाना चाहता हूँ. मुझे भी अपने साथ फांसी पर चढाने का आदेश दीजिये."

"ठीक है," राजा ने कहा, "जल्लाद, जल्दी से एक फंदा और लगाओ, कहीं शुभ मुहूर्त बीत न जाए." 

आननफानन में एक फंदा और लगाया गया. राजा और मंत्री दोनों सीधे स्वर्ग जाने की लालसा में सबके देखते देखते फांसी पर झूल गए. उधर मौके का फायदा उठा कर गुरु और शिष्य दोनों चुपचाप उस अंधेर नगरी से खिसक लिए. 




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