चोर और राजा - हिन्दी लोककथा | Chor aur Raja - Lok Katha in Hindi

बहुत समय पहले चन्द्रपुरी नामक नगरी में सोमेश्वर नाम का एक राजा राज्य करता था. वह बड़ा न्यायी, सत्यप्रिय और प्रजा के सुख का ध्यान रखने वाला राजा था. वह हमेशा दुखी और गरीबों को ढूँढ़ ढूँढ़ कर उनकी दशा सुधारने का यत्न करता रहता था. 

अपने राज्य का हाल जानने के लिए राजा वेष बदलकर अक्सर रातों को नगर की गलियों में घूमा करता था. एक रात की बात है, राजा सन्यासी का वेष धारण किये घूम रहा था कि अचानक एक गली के मोड़ पर एक चोर उसके सामने आ खड़ा हुआ. 

चोर ने सन्यासी से कहा - "जो कुछ भी धन तुम्हारे पास है, चुपचाप मुझे दे दो !"

सन्यासी ने पूछा - "तुम कौन हो ?"

चोर - "दिखाई नहीं देता क्या ? मैं भी तुम्हारे जैसा एक आदमी हूँ, मुझे रुपये चाहिए रुपये, जल्दी से निकालो !"

सन्यासी ने कहा - "मैं तुम्हें रुपये दूंगा, लेकिन यह तो बताओ तुम्हारा घर कहाँ है, उसमें कौन कौन है  और तुम्हारा धंधा क्या है ?"

चोर ने कहा - "मेरा घर यहीं पास के गाँव में है. घर में पत्नी और चार बच्चे हैं. मेरे पास कुछ भी नहीं है, बड़ी गरीबी में दिन काटता हूँ. बच्चों का पेट भरने के लिए चोरी लूट करता हूँ."

सन्यासी चोर के सच सच बोलने से प्रभावित हुआ. उसने अपनी कमर में बंधी हुई थैली निकाली और उसे चोर को सौंपते हुए कहा - "भाई, मेरे पास जो कुछ है वो सब ये रहा, लेकिन तुमसे एक वचन चाहता हूँ !"

चोर - "कैसा वचन ?"

सन्यासी - "तुम्हें वचन देना होगा कि जैसे तुमने आज मुझसे सच बोला है, वैसे ही आगे भी बोलते रहोगे, कभी झूठ नहीं बोलोगे."

चोर - "उससे क्या फायदा होगा ?"

सन्यासी - "हमेशा सच बोलोगे तो तुम्हें रुपये मिलते रहेंगे ... "

चोर - "कैसे मिलेंगे ?"

सन्यासी - "भगवान् दे देंगे !"

चोर के मन पर सन्यासी की बातों का बड़ा असर हुआ. विनीत  भाव से बोला - "महाराज, क्षमा कीजिये. आपसे रुपये लेने का मन नहीं करता लेकिन क्या करूं विवश हूँ. आज से आप मेरे गुरु हैं. आपने मुझे उपदेश दिया. रूपया भी दिया. मैं आपको वचन देता हूँ कि कभी असत्य नहीं बोलूंगा लेकिन चोरी करना नहीं छोड़ सकता, क्योंकि मुझे अपने बच्चों का पेट भरना है."

इतना कहकर चोर वहाँ से चला गया. सन्यासी मन ही मन प्रसन्न हुआ. वह जानता था कि एक दिन ये चोर चोरी करना भी छोड़ देगा क्योंकि सचाई और चोरी दोनों एक साथ नहीं चल सकतीं. 

दूसरे दिन रात को राजा एक मामूली आदमी के वेष में घूमने निकला. संयोग से वही चोर एक गली के मोड़ पर उसे फिर मिल गया. राजा ने चोर को देखते ही पहचान लिया लेकिन उसने राजा को नहीं पहचाना क्योंकि आज उसका वेष बदला हुआ था. 

राजा ने ये जानने के लिए कि ये चोर सच बोलता है या नहीं, उससे पूछा - "भाई कौन हो, कहाँ जा रहे हो ?"

"मैं एक चोर हूँ और राजमहल में चोरी करने जा रहा हूँ," चोर ने जवाब दिया. 

राजा मन ही मन खुश हुआ कि चोर ने सच बोलने की उसकी बात मानी है लेकिन उसने एक बार और परीक्षा लेनी चाही. बोला - "कोई चोर इस तरह सच बोल कर चोरी करता है क्या ... अगर चोर ऐसे करने लगे तो वह पकड़ा नहीं जाएगा  ?"

"सच बोलने से चोरी में कोई बाधा नहीं आएगी, बल्कि भगवान मदद करेंगे." चोर ने निश्चिन्त भाव से उत्तर दिया. 

"अच्छा ये बताओ, तुम राजा के महल में कैसे घुसोगे, वहाँ तो पहरेदार होंगे", राजा ने पूछा. 

चोर बोला -"ये वहीं जाकर देखूँगा. कोई न कोई तरकीब जरूर सूझेगी."

राजा - "तरकीब मैं जानता हूँ. अगर तुम चाहो तो तुम्हें बता सकता हूँ, लेकिन तुम्हें मुझे चोरी का आधा हिस्सा देना होगा."

चोर - "अच्छा, तो इसका मतलब तुम भी चोर ही हो ..."

राजा - "हाँ, मैं भी एक चोर हूँ, लेकिन महल में घुसने की हिम्मत नहीं है मुझमें !"

चोर - "तुम जैसा साथी पाकर ख़ुशी हुई. मैं तुम्हें आधा हिस्सा देने को तैयार हूँ. तुम तरकीब बताओ, चोरी करने का जिम्मा मेरा". 

राजा उसे महल के पिछवाड़े में ले गया और एक गुप्त मार्ग दिखाते हुए बोला - "इससे होकर चले जाओ, सीधे महल के भीतर पहुँच जाओगे."

चोर उस रास्ते से महल में घुस गया और एक बड़े से कमरे में पहुँच गया. वहाँ कोई नहीं था. तभी उसे एक कोने में रखा हुआ एक छोटा सा संदूक (पेटी) नजर आया. उसने संदूक खोला तो उसमें हीरे की पांच अंगूठियाँ रखी हुई थीं. 

उसने वो पाँचों अंगूठियाँ उठा लीं और चलने को उद्यत हुआ फिर सोचने लगा -"पांच अंगूठियों को आधा आधा करना मुश्किल होगा इसलिए मैं चार ही ले लेता हूँ." और उसने एक अंगूठी वही वापस रख दी और चला आया. 

बाहर राजा इंतज़ार कर रहा था. चोर के आते ही उसने पूछा - "कुछ मिला क्या ?"

चोर - "हीरे की चार अंगूठियाँ मिली हैं. थीं तो पांच लेकिन मैंने चार ही लीं ताकि हमारे बीच बंटवारा आसानी से हो जाए."

और शर्त के मुताबिक़ दो अंगूठियाँ चोर ने खुद ले लीं और दो राजा को दे दीं. इसके बाद दोनों अपने अपने घर चले गए. इससे पहले राजा ने चोर का नाम पता वगैरह सब पूछ लिया था. 

दूसरे दिन राजा ने मंत्री को बुलाया और कहा कि कल रात महल में किसी के आने की आहट सुनाई दी थी. जरा उस बड़े कमरे में जाकर देखो कि पेटी में रखी पांच अंगूठियाँ सुरक्षित हैं या नहीं. 

मंत्री उस कमरे में गया और पेटी में देखा तो केवल एक अंगूठी ही दिखाई दी. मंत्री समझ गया कि रात को चोरी हुई है. फिर उसने सोचा कि इस एक अंगूठी को मैं रख लेता हूँ. राजा से कह दूंगा कि पाँचों अंगूठियाँ चोरी हो गईं. वैसे भी चोर मूर्ख ही था जो सिर्फ चार अंगूठियाँ ले गया, एक छोड़ गया. राजा को तो पता चलना ही नहीं है. 

मंत्री ने आकर राजा से कहा - "महाराज, पेटी में रखी पाँचों अंगूठियाँ गायब हैं."

राजा समझ गया कि मंत्री झूठ बोल रहा है. एक अंगूठी इसने रख ली है. राजा ने तुरंत सिपाहियों से मंत्री की तलाशी लेने को कहा तो एक अंगूठी उसके पास से बरामद हो गई. 

राजा ने मंत्री को कैदखाने में डलवा दिया. फिर उसने सिपाही भेजकर चोर को बुलवाया. चोर ने राजा को देखा तो पहचान गया कि यह तो वही रात वाला आदमी है. वह हाथ जोड़कर कांपने लगा लेकिन राजा ने कहा - "आज से मैं तुम्हें अपना मंत्री नियुक्त करता हूँ."

चोर को विश्वास नहीं हुआ, बोला - "महाराज, आप यह क्या कह रहे हैं, मैं तो एक चोर हूँ."

राजा - "लेकिन तुम बड़े सच्चे हो. मुझे अपने मंत्री के रूप में एक सच्चे आदमी की ही जरूरत है."

और उस दिन से चोर राजा का ख़ास मंत्री बन गया. उसके दिन बदल गए. 




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