एक शहर, दो भाई - अरबी लोककथा | An Arabian Folk Tale

 बात उन दिनों की है जब यरुशलम शहर पर राजा सुलैमान का शासन था. हर दिन राजा अपने महल में दरबार लगाते थे जहां से राजकाज चलाते थे और प्रजा के विवादों का बड़ी बुद्धिमानी से न्याय किया करते थे. 

एक दिन दो भाई राजा के दरबार में आये. उनके पिता का हाल ही में निधन हुआ था. दोनों भाइयों में जमीन को लेकर विवाद था. बुद्धिमान राजा कुछ देर तक उन दोनों की बहस सुनता रहा लेकिन दोनों भाई जब बहस करते करते तू-तू मैं-मैं पर उतर आये तो राजा को उन्हें चुप रहने का आदेश देना पड़ा. 

"चलो मैं तुम दोनों को एक कहानी सुनाता हूँ", राजा ने दोनों भाइयों से कहा और फिर एक कहानी सुनाई. 

बहुत पहले जब यहाँ पर यरूशलेम शहर नहीं था और न ही कोई मंदिर था, तब की बात है. यहाँ पर दो गाँव हुआ करते थे जिनके बगल से होकर एक छोटी सी पहाड़ी नदी बहती थी. दोनों गाँवों के बीच की घाटी में दो भाइयों के खेत थे जिनकी जमीन काफी उपजाऊ थी. 

बड़ा भाई घाटी के किनारे के गाँव में रहता था जबकि छोटा भाई घाटी से थोड़ी दूर स्थित मैदान में बसे दूसरे गाँव में रहता था. दोनों गाँव आपस में दो रास्तों के जरिये जुड़े हुए थे. एक रास्ता घाटी की तलहटी से होकर गुजरता था तो दूसरा पहाड़ी के ऊपर से होकर. 

दोनों भाई रहते भले ही अलग-अलग गाँवों में थे, लेकिन खेती साझा ही करते थे. वे अपने खेतों में एक साथ मिलकर मेहनत करते और अंत में जो पैदावार होती उसे आधा-आधा बाँट लेते. 

फिर एक दिन बड़े भाई की शादी हो गई और अगले कुछ ही सालों में उसने तीन चार बच्चे भी पैदा कर लिए. बड़े भाई का परिवार अब बड़ा हो गया लेकिन फिर भी खेती से इतना मिल जाता था कि गुजारा हो जाता था. 

वहीं छोटे भाई की शादी हुई ही नहीं या शायद उसने की ही नहीं. कहने का मतलब उसका परिवार नहीं बढ़ा, वह अकेला ही रहा. 

एक बार गर्मियों में फसल अच्छी हुई. दोनों भाइयों को बीस-बीस बोरे अनाज मिल गया जिसे उन्होंने अपने - अपने गोदाम में ले जाकर रखवा दिया. 

खेती के काम से फुर्सत मिली तो एक दिन बड़े भाई को छोटे भाई का ख़याल आया. 

"मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि मेरा एक परिवार है," उसने सोचा. "जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा तो मेरा परिवार मेरी देखभाल करेगा. लेकिन मेरे गरीब भाई का कोई परिवार नहीं है. उसे अपने बुढ़ापे के लिए बचत करनी चाहिए. मुझसे ज्यादा उसे इस अनाज की जरूरत है. "

उसने अपने छोटे भाई को एक आश्चर्यजनक भेंट देने का फैसला किया. शाम होने के बाद, जब अँधेरा छा गया तो उसने अपने गोदाम में से तीन बोरी अनाज निकाला और उन्हें गधों पर लादकर पहाड़ी के रास्ते छोटे भाई के गोदाम में ले जाकर रख दिया. ये सब उसने इतने दबे पाँव किया कि छोटे भाई तो क्या, किसी को भी कानोंकान खबर नहीं हुई. 

"सुबह छोटा भाई जब इस भेंट को देखेगा तो उसे अवश्य बहुत ख़ुशी होगी," उसने सोचा. 

अगली सुबह नाश्ते पर उसने पत्नी को इस बारे में बताया साथ ही हिदायत दी कि वह पूरी तरह इस बात को गोपनीय रखे किसी को भी न बताये. 

लेकिन पत्नी ने जो कहा उसे सुनकर वह चौंक गया. पत्नी बोली - "लगता है तुमने सपना देखा है. मैं अभी गोदाम में से ही आ रही हूँ. वहां तो एक भी बोरी अनाज कम नहीं हुआ है."

वह पत्नी के साथ गोदाम में गया. वहाँ सचमुच पूरी बीस बोरी अनाज रखा हुआ था. लेकिन ये हुआ कैसे ? वह तो खुद तीन बोरी अनाज अपने गोदाम से उठाकर छोटे भाई के गोदाम में रखकर आया था. 

"लगता है मैं बूढ़ा और भुलक्कड़ होता जा रहा हूँ," बड़े भाई ने मन में सोचा. "लेकिन आज मैं सचमुच तीन बोरी अनाज छोटे भाई के गोदाम में रख कर आऊंगा. 

उस रोज शाम को अँधेरा घिरने के बाद वह फिर तीन बोरी अनाज गधों पर लादकर घाटी के रास्ते छोटे भाई के गाँव में पहुंचा और चुपचाप उसके गोदाम में रखकर आ गया. 

लेकिन अगली सुबह जब वह अपने गोदाम में गया तो फिर से आश्चर्य में पड़ गया क्योंकि वहाँ पूरी बीस बोरी अनाज जैसा का तैसा रखा हुआ था. एक भी बोरी कम नहीं हुई थी. उसका दिमाग चक्कर खाने लगा. 

उधर तीन दिन पहले, जब छोटे भाई ने खलिहान से ले जाकर अनाज को अपने गोदाम में उतारा तो बड़े भाई के बारे में सोचा. "उसे कितने बड़े परिवार को खिलाना पड़ता है. उसके घर में अनाज कम पड़ जाता होगा. मेरा क्या है, अकेला आदमी हूँ, इतने अनाज का क्या करूंगा."

ऐसा सोचकर जिस रात बड़ा भाई पहाड़ी के रास्ते उसके गोदाम में तीन बोरे अनाज रखने गया था, उसी समय वह घाटी के रास्ते से आकर बड़े भाई के गोदाम में चुपचाप तीन बोरी अनाज रख गया. लेकिन सुबह जब उसने अपने गोदाम में जाकर अनाज की बोरियां गिनीं तो उनमें एक भी बोरी कम नहीं हुई थीं, क्योंकि बड़ा भाई उसके गोदाम में चुपचाप तीन बोरियां रख गया था. 

दूसरे रोज भी फिर वही किस्सा हुआ. बड़ा भाई एक रास्ते से छोटे भाई के घर अनाज लेकर गया, तो दूसरे रास्ते से छोटा भाई बड़े भाई के घर अनाज लेकर पहुँच गया. इसीलिए दोनों के घर अनाज की बोरियां कम नहीं हो रहीं थीं. 

आखिर तीसरे दिन दोनों भाई फिर एक दूसरे के घर अनाज की बोरियां पहुंचाने के लिए निकले. अबकी बार दोनों ने पहाड़ी वाला रास्ता चुना. चांदनी रात होने के कारण रास्ता स्पष्ट नजर आ रहा था. बड़े भाई ने देखा कि सामने से उसका छोटा भाई तीन बोरियां गधों पर लादे उसकी ओर चला आ रहा है. छोटे भाई ने भी बड़े भाई को देखा. 

बिना कुछ बोले दोनों भाई अपने अपने घर में अनाज की बोरियां कम न होने का कारण समझ गए. उन्होंने एक दूसरे को गले से लगा लिया. आँखों से प्रेमाश्रुओं की धारा बह निकली. 

पहाड़ी का वो स्थान जहां दोनों भाई मिले थे, वहीं यरूशलेम शहर की नींव पड़ी. जिस स्थान पर दोनों भाई मिले थे, वहाँ एक पवित्र मंदिर बना. 

इन शब्दों के साथ राजा सुलैमान ने अपनी कहानी समाप्त की और शांत हो गए. कहानी सुनने के बाद दोनों भाई कुछ देर चुपचाप यूँ ही खड़े रहे. फिर दोनों भाइयों ने एक दूसरे की देखा. 

बड़े भाई ने आगे बढ़कर छोटे भाई को गले लगाते हुए कहा - "भाई, जो कुछ भी हमारे पिता छोड़कर गए वो न मेरा है न तुम्हारा है. वो अब हमारा है. हम दोनों का है."

इसके बाद दोनों भाई ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर चले गए और प्रेम से अपना जीवन व्यतीत किया. 

राजा सुलेमान ने जो कहानी सुनाई थी, वो यरूशलेम शहर की स्थापना के सम्बन्ध में आज भी लोककथा के रूप में प्रचलित है. 




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