गधे की हजामत - लोक कथा | Gadhe ki Hazamat - Lok katha in Hindi

 बहुत समय पहले बग़दाद शहर में अली नाम का एक नाई रहता था. वह हजामत की कला में बड़ा होशियार था. यही कारण था कि उसकी दूकान में शहर के बड़े बड़े अमीर और अफसर आदि आकर हजामत बनवाया करते थे. 

अली अपने पेशे से खूब धन कमाता था और बड़े बड़े लोगों से जान-पहचान और धन आ जाने के कारण थोडा घमंडी किस्म का भी हो गया था. वह किसी की भी परवाह नहीं करता था और अपनी मनमानी करता था. 

एक दिन की बात है अली अपनी दुकान पर थोड़ी सी फुर्सत में बैठा हुआ था कि सामने से एक लकडहारा अपने गधे पर लकड़ी का गट्ठर लादे हुए वहाँ से गुजरा. अली ने उसे बुलाया और पूछा - "इस लकड़ी का क्या दाम लोगे ?"

"पांच रूपया," लकडहारे ने कहा. 

"अरे बेवकूफ, इन ज़रा सी लकड़ियों का इतना दाम ! तू तो बड़ा लालची मालूम पड़ता है." अली ने कहा. 

"आजकल लकड़ी बड़ी मंहगी है हुज़ूर .... बहुत दूर से काटकर लानी पड़ती है." लकडहारे ने कहा. 

अली को लकड़ियों की जरूरत थी इसलिए बोला - "चल ठीक है ठीक है, मुझे तुझसे  बहस करने की फुर्सत नहीं है. ये ले अपना मुंहमांगा दाम और सारी लकड़ी उतार दे."

लकडहारे ने गधे के ऊपर लदी सारी लकडियाँ उतार दीं, और पांच रुपये लेकर जाने लगा. 

तभी अली ने पुकारकर कहा - "अबे लकडहारे, तू मुझसे बदमाशी करता है क्या ? गधे की जीन भी उतार दे, वह भी तो लकड़ी की है न ?"

लकडहारा - "हुज़ूर, यह बेचने के लिए नहीं है. सिर्फ गट्ठर का दाम पांच रूपया है."

अली - "जीन है तो लकड़ी की ही न ? और मैंने गधे के ऊपर की सारी लकड़ियों के दाम लगाए थे, समझा ! चुपचाप उसे भी उतार दे !"

लकडहारा - "कैसी बात करते हैं हुज़ूर, गधे की जीन भी कोई बेचता है ? यह तो मेरी रोजी-रोटी का सहारा है."

अब अली को गुस्सा आ गया. बोला - "तू मामूली लकडहारा होकर मुझसे बहस करता है. ठहर अभी मज़ा चखाता हूँ." 

इतना कहकर उसने अपने हाथ से गधे की जीन उतार ली और लकडहारे को मारपीट कर भगा दिया. 

बेचारा लकडहारा रोते रोते शहर के कोतवाल के पास गया लेकिन कोतवाल अली का दोस्त था. उसने लकडहारे की बात सुनकर अली का ही पक्ष लिया और लकडहारे को डांटकर भगा दिया. 

निराश होकर लकडहारा कोतवाल से भी बड़े अफसर के दफ्तर में पहुंचा लेकिन वहाँ भी उसकी कोई सुनवाई नहीं हुई क्योंकि वह भी अली के पास ही अपनी हजामत बनवाता था. 

"गरीब की कोई मदद नहीं करता, " यह सोचता हुआ निराश लकडहारा रोते रोते अपने घर की ओर आ रहा था कि रास्ते में एक बूढ़े ने उसके रोने का कारण पूछा. जब लकडहारे ने पूरा किस्सा सुनाया तो बूढ़े ने उसे खलीफा के पास जाने की सलाह दी. 

"खलीफा तुम्हारी फ़रियाद जरूर सुनेंगे." बूढ़े ने विश्वास के साथ कहा तो लकडहारे ने उसकी बात मान ली और खलीफा के पास फ़रियाद करने चला गया. 

खलीफा ने लकडहारे की बात ध्यान से सुनी और कहा - "तुमने पांच रुपये में गधे के ऊपर की सारी लकडियाँ बेचने का अली के साथ सौदा किया था. तुम्हारी जीन भी लकड़ी की थी इसलिए इन्साफ की नज़र में अली का उस पर भी हक बनता है." 

"लेकिन," खलीफा ने कहा, "गधे की जीन बेचने की चीज़ नहीं होती इसलिए अली ने तुम्हारे साथ बदमाशी की है. इसका सबक उसे सिखाना जरूरी है." 

फिर खलीफा ने लकडहारे के कान में कुछ कहा और लकडहारा वहाँ से चला गया. 

कुछ दिन बाद वही लकडहारा एक बार फिर अली की दूकान पर पहुंचा. अबकी बार उसका गधा साथ नहीं था और अली की दुकान पर रोज बीसियों ग्राहक आते थे इसलिए उसने लकडहारे को पहचाना नहीं. 

लकडहारा बोला - "मेरी और मेरे दोस्त की हजामत बनाने के कितने रुपये लगेंगे ?"

"दोनों के चार रुपये होंगे", अली ने जवाब दिया. 

"अच्छा, तब पहले मेरी हजामत करिए, फिर दोस्त को बुला लाऊंगा," कहकर लकडहारा हजामत बनवाने बैठ गया. 

अली ने लकडहारे की हजामत बनाई और फिर अपने दोस्त को बुला लाने को कहा. लकडहारा दोस्त को बुलाने गया और थोड़ी देर में अपने गधे को लेकर आया और बोला - "यही मेरा दोस्त है, इसकी हजामत बना दीजिये."

अली ने गधे को देखा तो गुस्से उसकी त्यौरियां चढ़ गईं. बोला - "बदतमीज़, तू क्या मेरा मजाक उड़ा रहा है ? जानता भी है तू किसके सामने खड़ा है ? तेरा कोई दोस्त हो तो जल्दी से हजामत के लिए ले के आ वर्ना यहाँ से भाग जा !" 

"लेकिन यही मेरा दोस्त है," लकडहारे ने मासूमियत से जवाब दिया, "आपको इसी की हजामत बनानी है."

अब तो अली का धैर्य जवाब दे गया. वह गुस्से से उबलता हुआ दूकान से बाहर निकला और लकडहारे को गालियाँ देकर मारपीट कर भगा दिया. 

लकडहारे ने खलीफा के दरबार में जाकर शिकायत की. खलीफा ने अली को बुलाया और पूछा - "क्या तुमने चार रुपये में इस लकडहारे के और इसके दोस्त के बाल बनाना मंजूर किया था ?"

अली - "जी हुज़ूर"

खलीफा - "तब फिर इसके दोस्त के बाल बनाने से इनकार क्यों कर दिया ?"

अली - "हुज़ूर, यह दोस्त के नाम पर गधे को लेकर आ गया ? आप ही बताइये भला गधा भी किसी का दोस्त हो सकता है क्या ?"

खलीफा - "जरूर हो सकता है. अगर गधे की जीन को कोई लकड़ी मानकर ख़रीद सकता है तो कोई गधे को दोस्त भी मान सकता है. इसमें इतने अचरज की बात क्या है ? तुम्हें उस लकडहारे के दोस्त गधे के बाल बनाने होंगे. कल शाम को पांच बजे यहाँ बाहर खुली सड़क पर तुम गधे की हजामत बनाओगे."

यह सुनकर अली नाई के ऊपर बिजली सी गिरी. वह लकडहारे के साथ किये गए अपने व्यवहार पर पछताने लगा. लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था. 

नियत समय पर शहर के सैकड़ों लोग गधे की हजामत का तमाशा देखने इकट्ठे हुए. अली अपनी हजामत की पेटी लेकर आया और उसे खलीफा के फैसले के अनुसार गधे की हजामत बनानी पड़ी. 

इसके बाद उसे अच्छा सबक मिला और फिर उसने कभी किसी को नहीं सताया. 




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