स्वर्ण मृग - जातक कथा | Swarn Mrig - Jatak Katha

जातक का अर्थ है जन्म-वृत्तांत. जातक कथाएं भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएं हैं. ये कथाएं सैकड़ों की संख्या में हैं और प्रत्येक कथा बुद्ध के किसी न किसी पूर्व-जन्म से सम्बंधित है. यह कथा उन्हीं अनेकों जातक कथाओं में से एक का भावानुवाद है.

स्वर्ण मृग (जातक कथा)

प्राचीन काल में काशी में ब्रहमदत्त नाम का राजा राज्य करता था. उसी समय वन प्रदेश में एक अत्यंत सुन्दर मृग था जिसका शरीर सोने के रंग का था. उसकी आँखें रत्नों की भाँति चमकती थीं और उसके सींग चांदी के जैसे सफ़ेद थे. लोग उस मृग को स्वर्ण मृग कहते थे. उसके साथ लगभग पांच सौ अन्य मृगों और मृगियों का झुण्ड भी रहता था. 

निकट के ही वन में मृगों का एक और झुण्ड रहता था. उनके सरदार का रंग भी सोने जैसा था और उसे शाखा मृग के नाम से जाना जाता था. 

काशी के राजा को आखेट करना बहुत पसंद था और अक्सर वे अपने दलबल के साथ वन प्रदेश में आखेट करने को चले जाया करते थे. राजा के इस तरह कई कई दिनों के लिए वन में चले जाने से राजकाज प्रभावित होता था. 

एक मंत्रियों ने सोचा क्यों न राजा के आखेट की व्यवस्था काशी नगर के पास ही कर दी जाए. उन्होंने एक बड़ा सा उद्यान बनवाया जिसमें मृगों आदि पशुओं के लिए चारे और पानी की व्यवस्था की और वन से मृगों के झुंडों को उद्यान में हांक लाये. उन मृगों में स्वर्ण मृग भी था. 

अब राजा उस उद्यान में ही आखेट के लिए जाने लगा. एक दिन उसने स्वर्ण मृग को देखा और उसके सौंदर्य से प्रभावित होकर उसे अवध्य घोषित कर दिया अर्थात कोई उसका शिकार नहीं कर सकता था. किन्तु अन्य साधारण मृगों का शिकार अब भी जारी रहा. 

तब बोधिसत्व (स्वर्ण मृग) ने मृगों की प्राणरक्षा के लिए एक उपाय निकाला. उसने शाखा मृग को बुलाकर सलाह की कि आखेट की यह प्रथा बंद होनी चाहिए, क्योंकि इसमें नित्य ही कई मृग मारे जाते थे और कई घायल हो जाते थे. 

दोनों मृग सरदारों ने निश्चय किया कि क्यों न राजा के आखेट के समय एक मृग उसके सामने भेज दिया जाए जिसे मारकर राजा का आखेट का शौक पूरा हो जाए और अन्य मृग व्यर्थ प्राण देने और घायल होने से बच जाएँ. 

इस तरह बारी - बारी से एक मृग नित्य ही राजा के सामने आने लगा जिससे राजा का हिरणों के पीछे भागने और घात लगाने का श्रम और समय बचने लगा तथा मृगों की प्राणरक्षा भी होने लगी. 

एक दिन एक गर्भिणी हिरनी की आखेट भूमि पर जाने की बारी थी. वह स्वर्ण मृग के पास गई और बोली - "मैं गर्भवती हूँ, आप मेरे स्थान पर किसी अन्य को आखेट भूमि पर भेजने की व्यवस्था कर दें अन्यथा मेरे पेट में जो बच्चा है वह निर्दोष ही मारा जाएगा." 

शाखा मृग भी वहीं था. उसने मृगी की बात सुनकर कहा - "नहीं, तुम्हारे स्थान पर और कोई नहीं जा सकता. जो  व्यवस्था बनाई गई है उसे भंग नहीं किया जा सकता. और फिर तुम्हारे स्थान पर जाकर समय से पूर्व मरने को कौन मृग तैयार होगा ?"

स्वर्ण मृग मृगी की वेदना से व्यथित हो गया. उसने कहा - "तू निर्भय होकर जा और समय पर अपने बच्चे को जन्म दे. मैं कोई दूसरी व्यवस्था कर लूँगा." यह सुनकर मृगी प्रसन्न होकर चली गई. 

दूसरे दिन आखेट भूमि में मृगी के स्थान पर स्वर्ण मृग स्वयं आकर खड़ा हो गया. राजा ने आकर जब वहाँ स्वर्ण मृग को देखा तो कहा - "हे मृगराज ! मैंने तुम्हारे रूपगुण से प्रभावित होकर तुम्हें अभयदान दिया था. फिर तुम्हारे यहाँ आखेट भूमि में आने का क्या कारण है ?"

स्वर्ण मृग ने कहा - "हे राजन ! आज यहाँ आने की जिस मृगी की बारी थी वह गर्भवती है. वह चाहती थी कि उसके स्थान पर किसी दूसरे को भेजने की व्यवस्था की जाए अन्यथा उसके गर्भ में स्थित बच्चा निर्दोष ही मारा जाएगा. अतएव उसकी प्राणरक्षा हेतु मैं स्वेच्छा से स्वयं को अर्पित कर रहा हूँ."

राजा स्वर्ण मृग की बात सुनकर बहुत प्रभावित हुआ. बोला - "हे स्वर्ण मृग ! दूसरों की प्राणरक्षा के लिए अपने प्राण अर्पित करने वाला तो मैंने कोई व्यक्ति मनुष्यों में भी नहीं देखा है. तुम धन्य हो. मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हारे साथ उस मृगी को भी अभयदान देता हूँ."

स्वर्ण मृग ने कहा - "राजन ! दो की प्राण रक्षा से क्या होगा ? शेष तो मृत्यु मुख में जायेंगे ही !"

राजा ने कहा - "ऐसी बात है तो मैं सभी मृगों को अभयदान देता हूँ. आज से मैं या मेरा कोई आदमी किसी मृग को नहीं मारेगा."

स्वर्ण मृग ने कहा - "हे राजन ! आप सचमुच दया के सागर हैं. किन्तु आपके वचन से सिर्फ मृगों की प्राणरक्षा होती है. अन्य चौपाये तो फिर भी वध किये जायेंगे."

राजा ने कहा - "हे मृगराज ! तुमसे बड़ा लोक-कल्याण-कामी मैंने अपने जीवन में नहीं देखा. तुम्हारी प्रसन्नता के लिए मैं सम्पूर्ण जीवों को अभय देता हूँ. आज से मेरे राज्य में अब किसी भी प्रकार का कोई आखेट नहीं होगा."

इस प्रकार स्वर्ण मृग के रूप में मौजूद बोधिसत्व ने राजा से समस्त जीवों को अभयदान दिला दिया और वापस वन को चले गए. 

समय आने पर मृगी ने एक सुन्दर शावक को जन्म दिया और उसे उपदेश रूप में बोधिसत्व की यह कथा सुनाई.




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