फटा हुआ बूट - नोबेल विजेता ग्रेजिया डेलेडा की कहानी | Fata Hua Boot - A story by Nobel Laureate Grazia Deledda

 फटा हुआ बूट 

(इटली की नोबेल विजेता लेखिका ग्रेजिया डेलेडा की कहानी का भावानुवाद)

एलिया कहने को तो वकील था मगर कचहरी में बेकार सा रहता था. उस जमाने में लोग कोर्ट कचहरी से दूर ही रहना पसंद करते थे. बड़े बड़े वकील भी छोटे छोटे मुकदमे लेने को मजबूर थे फिर एलिया तो कोई नामचीन वकील भी नहीं था. फिर भी वह नियमपूर्वक कचहरी जाता था और वहाँ एकांत में बैठकर अपनी प्यारी पत्नी के नाम कवितायें लिखा करता था.

एक दिन जब वह कचहरी से लौट रहा था, उसके एक परिचित ने उसे रोका और कहा - "मैं अभी अभी तेर्सनोवा से लौटकर आ रहा हूँ. वहाँ तुम्हारे चाचा से मिला था. वे बहुत सख्त बीमार हैं....."

एलिया घर पहुंचा तो उसकी पत्नी घर के बाहर धूप में खड़ी उसका इंतज़ार कर रही थी. उसने चाचा की बीमारी की खबर पत्नी को सुनाई तो उसके शांत गंभीर चेहरे पर बेचैनी के स्थान पर एक रहस्यमयी मुस्कान उभर आई. पत्नी को मुस्कुराता देख एलिया भी मुस्कुरा दिया. दोनों ने एक दूसरे से कुछ नहीं कहा लेकिन दोनों एक-दूसरे के मन की बात समझ गए. एलिया के चाचा मरने पर अपनी सारी संपत्ति उसे दे जाने वाले थे क्योंकि उनका अपना कोई वारिस नहीं था.

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"तो मैं जाता हूँ," एलिया ने कहा.   

पत्नी एलिया के फटे हुए बूट की ओर देखते हुए बोली - "रास्ते के खर्चे का भी कुछ इंतजाम किया है ... ?"

"इसकी चिंता मत करो. मेरे पास थोड़े से पैसे हैं." 

एलिया अपने चाचा के गाँव की ओर रवाना हो गया. रास्ते में वह तेजी से चलता हुआ अपने फटे हुए बूटों के बारे में सोच रहा था कि ये किसी तरह उसे चाचा के घर तक पहुंचा दें तो अच्छा हो. 

रात हुई तो ठण्ड बढ़ने लगी. एलिया को लगा कि ठण्ड उसके पांवों से लिपटी जा रही है. उसने अपने खस्ताहाल बूट पर एक नजर डाली जो अब मरम्मत कराने लायक भी नहीं रह गया था. उसे पहनकर चलने में बड़ी तकलीफ हो रही थी. उससे भी ज्यादा तकलीफ उस ख़याल से हो रही थी कि इतने खस्ता बूट को पहनकर चाचा के घर जाना कितनी बेइज्जती की बात होगी. परन्तु वह कर भी क्या सकता था, उसके पास और कोई चारा न था. 

तब वह बूट से ध्यान हटाकर चाचा की संपत्ति पाने और भविष्य के सुखी जीवन के बारे में सोचने लगा. 

रास्ते में एक गाँव मिला जहां वह रात बिताने के लिए एक धर्मशाला में ठहर गया. कम किराए में उसे एक गन्दी सी, छोटी सी कोठरी मिली जिसमें दो व्यक्ति पहले से ठहरे हुए थे. वे दोनों सोये हुए थे. 

एलिया जो कपडे पहने हुए था, उन्हीं में लेट गया परन्तु उसकी आँखों में नींद नहीं थी. ख्यालों की आवाजाही उसे सोने नहीं दे रही थी. आज दिन भर उसके बूटों ने उसे परेशान किया है और कल इन्हीं बूटों को पहनकर चाचा के पास जाना है, यह ख़याल बार बार उसके ह्रदय को बेचैन किये हुए था. उसे अपने चारों तरफ बूट ही बूट नजर आने लगे. 

उसकी नजर बगल की खटिया पर लेटे मुसाफिर पर गई. खटिया के नीचे उसके बूट रखे हुए थे. वह बहुत धीरे से उठा और उसने अपना एक पाँव उस मुसाफिर के बूट में डाला. लेकिन पहनते ही उसे लगा जैसे उसके पाँव में कोई तपती चीज़ चुभी है. उसने तुरंत वह बूट उतार डाला. तभी बाहर किसी के बोलने की अस्पष्ट सी आवाज सुनाई दी तो डर के मारे उसके शरीर में सिहरन दौड़ गई. ठीक उसी समय, उसकी अंतरात्मा से फटकार की आवाज आई कि वह पतन के रास्ते पर जा रहा है. वह वापस अपनी खटिया पर आ गया.

बाहर की आवाज जब बंद हो गई तो वह धीरे से कोठरी से बाहर निकला. एक तरफ लटकी लालटेन मद्धिम सी रोशनी कर रही थी. वहाँ कोई नहीं था. नजर घुमा कर देखा तो कोठरी के दरवाजे के एक ओर एक जोड़ी बूट रखे हुए थे. शायद दूसरे मुसाफिर के थे. उसी समय उसने बिना कुछ सोचे उन बूटों को उठाया और अपने कोट में छिपा लिया. फिर एक नजर सोये पड़े चौकीदार की ओर देखकर वह चुपके से फाटक खोलकर धर्मशाला से बाहर निकल गया. 

लगभग आधा घंटा नंगे पाँव चलने के बाद उसे बूट पहनने का ख़याल आया. एक पत्थर पर बैठकर पहले वह कुछ क्षणों तक उन बूटों को देखता रहा फिर उन्हें पहनकर खड़ा हुआ तो अन्दर से फिर फटकार की आवाज आई - "पतन, घोर पतन !"

लेकिन उसने उस आवाज की बिलकुल परवाह नहीं की और चल पड़ा. न जाने क्यों, अब वह पहले की तरह तेजी से नहीं चल पा रहा था. उसके कदम लड़खड़ा रहे थे. वह बार बार पीछे मुड़कर देखता था कि कहीं कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा है. 

सबेरे का उजाला फैलने लगा तो उसका डर और भी बढ़ गया. उसके दिमाग में विचारों की आंधियां चलने लगीं. उसे लगने लगा कि राह चलते लोग उसकी चोरी भांप लेंगे और फिर उसके चोर होने की खबर सब ओर फ़ैल जायेगी. सोचते सोचते जब उसका दिमाग फटने लगा तो उसने चुराया हुआ बूट उतार कर एक ओर फेंक दिया और अपना पुराना बूट पहन लिया. 

इतना करने के बाद भी उसके मन को शांति न मिली. उसे अब भी लग रहा था कि कोठरी के दोनों मुसाफिर उसके पीछे आ रहे होंगे और उसे पकड़ लेंगे. अगर वह पकड़ा गया तो उसके चोर होने की खबर उसकी पत्नी के पास भी अवश्य पहुँच जायेगी और ... और ... यह तो अनर्थ ही हो जाएगा. 

उसे अपने भीतर से धिक्कार सी महसूस हुई. संपत्ति पाने से पहले ही वह किस अधःपतन को पहुँच गया है. 

चलते-चलते वह रुक गया और अचानक लौट पड़ा. वापस उसी स्थान पर आया जहां बूट फेंका था. वह बूट अब भी वहीं पड़ा हुआ था. उन बूटों की ओर देखते हुए वह फिर सोचने लगा. अगर वह इन बूटों को छिपा दे या जमीन में गाड़ दे तो भी उसे शान्ति नहीं मिलने वाली. आखिर यह चोरी अपनी आत्मा से कैसे छिपाएगा. 

अचानक उसने बूट उठाया और धर्मशाला की ओर चल पड़ा. वह धीरे - धीरे चल रहा था ताकि अँधेरा होने पर ही धर्मशाला में पहुंचे. आज उसने दिन भर कुछ भी नहीं खाया था और बड़ी थकान महसूस कर रहा था फिर भी वह डगमगाते क़दमों से चलता जा रहा था. 

धर्मशाला में पहुंचा तो वहाँ खामोशी थी. उसने रात काटने के लिए जगह ली और मौका पाकर बूट वापस वहीं रख दिया जहां से उठाया था. फिर वह जाकर अपनी खटिया पर लेट गया. लेटते ही उसे नींद आ गई. 

सुबह जागा तो बचे-खुचे पैसों से डबलरोटी खरीदी और उसे खाकर चाचा के गाँव की ओर चल पड़ा. उसके पैरों में वही पुराना फटा हुआ बूट था लेकिन मन बहुत हल्का और स्वस्थ था. उसे मौसम बड़ा सुहाना प्रतीत हो रहा था. 

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आखिर शाम को जब वह चाचा के घर पहुंचा तो पता चला कि कुछ ही घंटों पहले वह चल बसे थे. नौकरानी ने बताया - "मालिक ने आपका बहुत रास्ता देखा. तीन दिन पहले आपको तार भी भेजा था. वे कहा करते थे कि आप ही अकेले उनके वारिस हैं, लेकिन आपने उन्हें भुला दिया. वे आपसे बहुत नाराज थे. जब आज सुबह तक भी आप नहीं आये तो उन्होंने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय को दे दी. "

एलिया लौटकर अपने घर आया. पत्नी ने जब सारा हाल सुना तो वह बोली - "अच्छा ही हुआ जो वह संपत्ति हमें नहीं मिली. जिस संपत्ति के मिलने से पहले ही आदमी अपनी ईमानदारी खो बैठे, उसका न मिलना ही अच्छा है."




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