बहुत समय पहले किसी नगर में चार मित्र रहते थे. बचपन से ही साथ-साथ खेलते, जहां भी जाते साथ ही जाते. बड़े हुए तो तीन मित्र तो विद्या अध्ययन करके विभिन्न विद्याओं में पारंगत हो गए किन्तु चौथा मित्र अपनी पारिवारिक परिस्थितियों के चलते पढ़ न पाया. यह बात अवश्य थी कि भले ही वह किसी विद्या में पारंगत न हो सका किन्तु उसे व्यवहारिक ज्ञान बहुत था.
एक दिन चारों मित्र बैठे थे तब एक मित्र ने कहा कि अब हम पूर्ण युवक हो चुके हैं इसलिए अब हमें धन कमाने के विषय में सोचना चाहिए. दूसरे मित्र ने कहा कि धन कमाने के लिए हमें परदेस जाना चाहिए क्योंकि देखा गया कि जो परदेश जाते हैं वे बहुत धन कमा कर लौटते हैं.
तीन पढे लिखे मित्रों ने तय किया कि वे धन कमाने के लिए परदेश जायेंगे और अलग अलग राज्यों में जाकर अपनी - अपनी विद्या का प्रदर्शन करेंगे. उनके प्रदर्शन से खुश होकर राजा गण और धनी लोग उन्हें पुरस्कार और भेंट देंगे. इस तरह वे बहुत धन कमा सकते हैं.
किन्तु समस्या चौथे मित्र की थी, उसे तो कोई विद्या आती ही न थी. तब तीनों मित्रों ने तय किया कि हम तीनों जो भी कमाएंगे, उसमें से कुछ भाग इसे भी देंगे. इस तरह चौथा मित्र भी उनके साथ हो लिया और वे सभी एक दूसरे राज्य की यात्रा पर निकल पड़े.
रास्ते में जब वे जंगल से होकर गुजर रहे थे, तब एक जगह उन्हें कुछ हड्डियां पड़ी हुईं दिखाई दीं. बहुत सोचने पर भी उन्हें यह समझ में नहीं आया कि आखिर वे हड्डियां किस जानवर की हैं ? तब उन हड्डियों को गौर से देखते हुए एक मित्र बोला कि हम सभी अपनी अपनी विद्या के बल पर धन कमाने का उद्देश्य लेकर जा रहे हैं. क्यों न हम पहले एक बार इन अस्थियों पर अपनी अपनी विद्या का परीक्षण कर लें ?
तीनों पढ़े लिखे मित्र इस पर सहमत हो गए. पहला मित्र बोला - "मैं अपने मन्त्रों की शक्ति से इन बिखरी और टूटी हुई हड्डियों को जोड़कर कंकाल में बदल सकता हूँ." दूसरा मित्र बोला - "मैं अपने मन्त्रों की शक्ति से उस कंकाल पर मांस, रक्त और खाल चढ़ा सकता हूँ." तीसरा बोला - "मैं अपने मन्त्रों की शक्ति से उस मृत शरीर में प्राणों का संचार कर सकता हूँ."
बस, फिर क्या था, तीनों मित्र अपनी अपनी विद्या के परीक्षण में जुट गए.
पहले ने मंत्र पढ़े तो सभी बिखरी हुई हड्डियां आपस में जुड़ने लगीं और कंकाल का ढांचा तैयार हो गया. उसने गर्व से अपने मित्रों की ओर देखा. दूसरे मित्रों ने उसकी विद्या की तारीफ की.
दूसरे ने अपनी बारी पर मंत्र पढ़ा तो उस कंकाल पर मांस और चमड़े की परत चढ़ गई. उसने भी छाती फुलाकर मित्रों की ओर देखा. मित्रों ने उसकी भी तारीफ की.
अब तीसरे मित्र की बारी थी, जिसे उस शरीर में प्राणों का संचार करना था. जैसे ही वह मंत्र पढने को उद्यत हुआ, चौथा मित्र जो कि अनपढ़ था, जोर से चिल्लाया - "रुको ..... ! ये तुम क्या करने जा रहे हो ? क्या तुम्हें दिख नहीं रहा कि ये शेर का शरीर है. वे हड्डियां इसी शेर की थीं. यदि तुम इसे जीवित करोगे तो यह हमें मारकर खा न जाएगा ?"
इस पर तीसरा मित्र तुनक कर बोला - "तुम अनपढ़ आदमी मुझे अपनी विद्या का प्रयोग करने से रोक कर मुझे अपने इन दो मित्रों की नज़रों में उपहास का पात्र बनाना चाहते हो ? ये मैं हरगिज़ नहीं होने दूंगा. मुझे अपनी विद्या पर गर्व हैं और मैं उसका प्रयोग अवश्य करूंगा."
अन्य दो विद्वान् मित्रों ने भी उसकी बात का समर्थन किया. किन्तु चौथा मित्र किसी तरह उस शेर को जीवित करने के पक्ष में न था. उसने अपने तीनों मित्रों को बहुतेरा समझाया कि यह शेर हमें मार सकता है किन्तु अपनी विद्या के घमंड में चूर उन पढ़े-लिखे मित्रों ने उसकी एक न सुनी.
अंत में हार कर चौथा मित्र बोला - "ठीक है, यदि तुम अपनी विद्या का प्रयोग करना ही चाहते हो तो करो. किन्तु उससे पहले मुझे किसी ऊंचे पेड़ पर चढ़ जाने दो."
और इतना कहकर वह चौथा मित्र फ़ौरन एक पेड़ की खूब ऊंची सी शाख पर जा बैठा. उधर वे तीनों मित्र अपने उस अज्ञानी मित्र की खूब हंसी उड़ाते रहे.
जब चौथा मित्र पेड़ पर जाकर बैठ गया तो तीसरे ने अपने मंत्र पढ़ने शुरू किये. जैसा कि उसने दावा किया था, मंत्र पढ़ते ही शेर के भीतर प्राणों का संचार हो गया और वह भयंकर गर्जना करता हुआ जीवित होकर उठ बैठा.
और फिर वही हुआ जिसकी आशंका चौथे मित्र ने व्यक्त की थी. शेर ने जीवित होते ही उन तीनों मित्रों को कुछ ही पलों में चीर-फाड़ डाला और खा गया.
काफी देर बाद, जब शेर जंगल में चला गया, तब चौथा मित्र पेड़ से नीचे उतरा और अपने विद्वान् किन्तु व्यावहारिक ज्ञान से बिलकुल शून्य, तीनों मित्रों की बुद्धि पर लानतें भेजता हुआ वापस घर लौट आया.
इसीलिए कहा गया है कि जीवन में सिर्फ किताबी ज्ञान ही पर्याप्त नहीं होता, मनुष्य को व्यावहारिक ज्ञान होना भी अति आवश्यक है.
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