समझदार जज - टॉलस्टॉय की कहानी | Samajhdar Judge - A story by Leo Tolstoy

 समझदार जज 

(सुप्रसिद्ध रूसी लेखक लियो टॉलस्टॉय की एक बाल कहानी का भावानुवाद)

बहुत समय पहले की बात है. अफ्रीका में एक देश है अल्जीरिया. उन दिनों वहाँ बाउकोस नामक राजा राज करता था. बाउकोस के राज्य में एक बड़े समझदार जज साहब थे. उनके न्याय के बारे में लोग कहते थे कि वे दूध का दूध और पानी का पानी कर देते थे. कैसा भी चालाक मुजरिम हो, उनकी पैनी नजरों से बच नहीं पाता था. यही कारण था कि जज साहब की ख्याति पूरे राज्य में फैली हुई थी. 

फैलते-फैलते जज साहब की ख्याति राजा के कानों तक भी पहुंची. एक बार राजा ने जज की परीक्षा लेने का निश्चय किया और वे भेष बदलकर उसी शहर में जा पहुंचे जहां जज साहब तैनात थे. 

शहर के मुख्य दरवाजे पर राजा को एक अपंग भिखारी नजर आया. राजा ने उसे कुछ पैसे दिए. पैसे देने के बाद जब राजा चलने लगे तो भिखारी ने विनती की - "मैं अपंग होने के कारण चल नहीं सकता. यदि आप मुझे अगले चौक तक छोड़ देंगे तो बड़ी कृपा होगी."

राजा को दया आ गई. उन्होंने भिखारी को घोड़े पर बैठा दिया और खुद पैदल चलने लगे. अगले चौक पर पहुंचकर राजा ने भिखारी को घोड़े से उतरने को कहा. 

"क्यों उतरूँ ? यह घोड़ा तो मेरा है !" भिखारी ने दावा किया. राजा ने प्रतिवाद किया किन्तु भिखारी जोर जोर से चिल्लाकर घोड़े को अपना बताने लगा. देखते ही देखते वहाँ कई लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई. 

"घोड़ा किसका है इसका निर्णय तो जज साहब ही करेंगे," लोगों ने कहा. 

राजा और भिखारी जज साहब की कचहरी में पहुंचे. वहाँ काफी भीड़ थी. जज बारी - बारी से लोगों को बुला रहे थे. 

सबसे पहले जज ने एक लेखक और किसान को बुलाया. उनके साथ एक महिला भी थी. लेखक और किसान दोनों उस महिला के अपनी पत्नी होने का दावा कर रहे थे. 

जज ने दोनों से कहा - "महिला को आज यहीं छोड़ दो और कल कचहरी में आओ."

इसके बाद जज के सामने एक कसाई और तेली की पेशी हुई. कसाई के हाथों में पैसों की एक थैली थी. दोनों पक्ष उस थैली को अपना बता रहे थे. 

जज ने कहा - "थैली को यहीं छोड़ दो और कल आओ."

अब राजा और भिखारी की बारी आई. दोनों घोड़े पर अपना अपना दावा पेश करने लगे. जज ने दोनों की दलीलें सुनकर कहा - "घोड़े को यहीं छोड़ दो और कल आओ."

अगले दिन जज के निर्णय को सुनने के लिए कचहरी में लोगों का भारी हुजूम इकठ्ठा हुआ. 

सबसे पहले लेखक और किसान की बारी आई. जज ने लेखक से कहा - "यह महिला आपकी पत्नी है, आप इन्हें ले जा सकते हैं." साथ ही महिला पर झूठा दावा पेश करने के अपराध में उसने किसान को पचास कोड़े लगाने का भी हुक्म दिया. 

इसके बाद कसाई और तेली की बारी आई. जज ने कसाई को बुलाकर कहा - "लो, यह पैसों की थैली तुम्हारी है." साथ ही तेली को पचास कोसों की सजा सुनाई.

अंत में जज ने राजा और भिखारी को बुलाया. 

"क्या तुम बीस घोड़ों में से अपने घोड़े को पहचान पाओगे ?" जज ने राजा और भिखारी दोनों से पूछा. दोनों ने 'हाँ' में उत्तर दिया. जज एक-एक करके दोनों को अस्तबल में लेकर गए. दोनों ने घोड़े को सही सही पहचाना. 

कुछ देर सोच-विचार के बाद जज ने राजा को बुलाकर कहा - "यह घोड़ा आपका है. आप इसे ले जा सकते हैं." साथ ही उन्होंने भिखारी को पचास कोड़ों की सजा भी सुनाई. 

कचहरी समाप्त होने पर जब जज साहब घर जाने लगे तो राजा भी पीछे पीछे चलने लगे. 

राजा को पीछे आते देख जज ने पूछा - "जनाब क्या आप मेरे निर्णय से असंतुष्ट हैं ?"

"जनाब मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ परन्तु यह जानना चाहता हूँ कि आप इन निर्णयों पर कैसे पहुंचे ?"

"काफी आसान था," जज साहब मुस्कुराते हुए बोले. "सुबह-सुबह मैंने महिला से दवात में स्याही भरने को कहा. महिला ने इस काम को बड़े करीने से अंजाम दिया. इससे मुझे अंदाजा हो गया कि वह लेखक की पत्नी ही होगी. जहां तक पैसों की थैली की बात है मैंने कल रात सोते समय सिक्कों को एक पानी के बर्तन में डाल दिया. सुबह देखा तो पानी पर कोई तेल नहीं दिखा. यदि तेली के पैसे होते तो पानी पर कुछ न कुछ तेल जरूर तैरता. इससे मुझे लगा कि ये पैसे कसाई के ही हैं."

"आपके घोड़े का मामला जरूर कुछ पेचीदा था. फिर मैं आप दोनों को अस्तबल ले गया. किन्तु मैं आप दोनों को घोड़े की पहचान कराने के लिए नहीं ले गया था. दरअसल मैं तो यह देखना चाहता था कि घोड़ा आपको पहचानता है या नहीं. जब आप घोड़े के पास गए तो घोड़े ने अपनी गर्दन आपकी ओर घुमाई और सर हिलाया. पर भिखारी को देखकर घोड़े ने अपनी टांग ऊपर उठाई. इससे मुझे स्पष्ट हो गया कि आप ही घोड़े के असली मालिक हैं."

जज साहब की बातें सुनकर राजा बोले - "मैं राज बाउकोस हूँ. मैंने आपके न्याय की बहुत तारीफ़ सुनी थी, बस उसी की पुष्टि करने आया था. आप वाकई न्याय की साक्षात मूर्ति हैं. आप अपने लिए जो भी पुरस्कार चाहें मुझसे मांग सकते हैं."

"मुझे कोई पुरस्कार नहीं चाहिए," जज साहब विनम्रतापूर्वक बोले, "राजा की प्रशंसा ही मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है."




Post a Comment

1 Comments