दुर्जन की मित्रता - पंचतंत्र की कहानी | Durjan ki Mitrata - A Panchatantra Story in Hindi

किसी वन में मदोत्कट नामक एक सिंह रहता था. चीता, कौआ और एक गीदड़ उसके प्रिय अनुचर थे. 

एक दिन सिंह अपने अनुचरों के साथ एक ऊँचे स्थान पर बैठा हुआ था तभी उसे अपने दल से भटका हुआ एक ऊँट दिखाई पड़ा. सिंह ने इससे पहले कभी ऊँट नहीं देखा था. लम्बी सी गर्दन और पीठ पर कूबड़ वाले जानवर को देखकर सिंह ने कहा - "यह तो बड़ा अजीब प्राणी है. इससे पहले तो कभी इसे जंगल में नहीं देखा ? पता लगाओ यह कौन है ?"

कौआ बोला - "महाराज, यह ऊँट है. यह जंगल में नहीं बल्कि रेगिस्तान में पाया जाता है इसीलिए आपने इसे पहले कभी नहीं देखा. लगता है यह भटककर जंगल में आ गया है."

गीदड़ बोला - "अच्छा हुआ यह भटककर यहाँ आ गया. आज यह हमारे महाराज का आहार बनेगा. हम सब भी इसका मांस खाकर तृप्त हो जायेंगे."

सिंह बोला - "वह रास्ता भटक गया है, उसे मारना मैं ठीक नहीं समझता. तुम लोग उसे अभयदान देकर मेरे पास ले आओ."

गीदड़ गया और ऊँट को सिंह के पास ले आया. 

ऊँट सिंह को देखकर प्रणाम करके एक ओर बैठ गया. उसका नाम कथनक था. पूछने पर पता चला कि वह सचमुच अपने दल से बिछुड़ गया है और रास्ता भटक गया है. उसने यह भी बताया कि वह एक रेगिस्तानी गाँव में रहता है और अपने मालिक के लिए बोझा ढोने का काम करता है. 

सिंह बोला - "भाई कथनक, अब अगर तुम वापस अपने गाँव पहुँच भी गए तो वहाँ फिर से ज़िन्दगी भर बोझा ही ढोते रहोगे. क्यों वापस उसी जंजाल में जाते हो ? इससे अच्छा है यहाँ जंगल में हमारे साथ रहो, हरी हरी घास चरो और आज़ादी की ज़िन्दगी जियो."

ऊँट को सिंह की बात जंच गई और वापस अपने गाँव जाने का विचार त्यागकर वह आनंदपूर्वक उसी वन में रहने लगा. 

एक दिन मदोत्कट सिंह और एक जंगली हाथी में भिडंत हो गई. बलशाली हाथी ने मार मार कर सिंह को घायल कर दिया. जान तो जैसे तैसे बच गई लेकिन अब वह पहले की तरह शिकार करने लायक न रहा. उसे चलने - फिरने में कष्ट होने लगा, जिस कारण शिकार करना उसके लिए काफी मुश्किल काम हो गया. 

नतीजा यह हुआ कि सिंह और उस पर आश्रित उसके अनुचरों की भूखों मरने की नौबत आ गई. एक दिन सिंह ने कहा - "अब दौड़ना भागना तो मुझसे होता नहीं इसलिए तुम लोग वन में जाओ और बहला-फुसला कर किसी जीव को मेरे पास तक ले आओ, जिसे मारकर मैं अपने और तुम्हारे भोजन का प्रबंध कर सकूँ."

उसके अनुचर चरों तरफ जंगल में विचरने लगे किन्तु किसी भी जीव को सिंह के पास तक लाने में कामयाब न हो सके. तभी गीदड़ की नजर जंगल में घास चर रहे कथनक ऊँट पर पड़ी. वह कौए से बोला - "इधर-उधर भटकने से क्या लाभ ? क्यों न इस कथनक को ही अपना आहार बनाया जाए ?"

कौआ बोला - "बात तो तुम्हारी एकदम ठीक है. यह खूब मोटा ताजा भी हो गया है. इसके मांस से हमारे काफी दिनों के आहार का प्रबंध हो जाएगा. किन्तु, इसे तो हमारे महाराज ने अभयदान दिया हुआ है, वे इसे कदापि न मारने देंगे !"

"फिर भी एक बार महाराज से पूछकर देखने में क्या हर्ज है ?" गीदड़ बोला. 

और फिर, गीदड़ ने सिंह के पास जाकर कहा - "महाराज, हमने पूरा जंगल खोज लिया किन्तु आपके और हमारे भोजन के लायक जीव का प्रबंध न हो सका. हम लोग भूख से मरने के कगार पर हैं ऐसे में मेरा विचार है कि क्यों न इस कथनक ऊँट को अपना आहार बनाया जाए ?"

यह सुनकर सिंह बोला - "जिसे मैंने स्वयं अभयदान दिया हो उसे मारकर मैं पाप का भागी बनूँ ? ये मैं नहीं कर सकता, फिर कभी ऐसी बात न कहना."

गीदड़ बोला - "महाराज, यह सत्य है कि जिसे आपने अभयदान दिया है उसे मारने पर आपको पाप लगेगा किन्तु मेरे पास एक ऐसी युक्ति है जिससे ऊँट स्वयं आपके पास आकर आपका आहार बनने की प्रार्थना करेगा, फिर आपको पाप नहीं लगेगा."

सिंह भूख से स्वयं बहुत व्याकुल था इसलिए गीदड़ की यह बात सुनकर वह कुछ न बोला, चुप रहा. सिंह की चुप्पी देखकर गीदड़ और कौआ समझ गए कि सिंह उसकी बात पर राजी है. 

अब चीता, गीदड़ और कौए ने मिलकर पहले सलाह मशविरा किया और फिर ऊँट को साथ लेकर सिंह के पास पहुँच गए. 

सबसे पहले चीता बोला -"महाराज, आपकी भूख अब मुझसे देखी नहीं जाती. मैं अपने आपको प्रस्तुत करता हूँ. आप मुझे मारकर खा लीजिये."

सिंह बोला - "कैसी बात करता है भाई, तू मेरा बचपन का मित्र है. मैं तुझे मारकर कैसे खा सकता हूँ. इससे अच्छा तो मैं भूखे मर जाना पसंद करूंगा."

अब कौआ बोला - "तो महाराज मुझे मारकर खा लीजिये. मैं अपने स्वामी का भोजन बनकर स्वयं को कृतार्थ अनुभव करूंगा."

सिंह हंसकर बोला - "तेरे छटांक भर मांस से मेरा क्या होगा भाई, और फिर तू भी तो मेरा मित्र है. मैं तुझे नहीं खा सकता."

अब गीदड़ बोला - "महाराज, कम से कम मुझे ही मारकर खा लीजिये. मैं अपनी आँखों के सामने आपको भूख से तड़पते नहीं देख सकता."

सिंह ने गीदड़ को भी बड़े प्यार से खाने से मना कर दिया. 

ऊँट यह सब देख रहा था. उसने देखा कि सभी अनुचरों ने अपने आपको प्रस्तुत किया किन्तु सिंह ने किसी को नहीं मारा. उसने सोचा ऐसे मौके पर मुझे भी अपने आपको प्रस्तुत करना चाहिए, आखिर सिंह मेरा भी तो मित्र है, मुझे मारेगा तो वैसे भी नहीं. कहने में क्या जाता है ?

ऊँट बोला- "महाराज, आप मुझे मारकर खा लीजिये......"

सिंह और उसके अनुचर तो इसी मौके की तलाश में थे. ऊँट की बात पूरी भी न होने पाई थी कि सिंह सहित चीता, गीदड़ और कौआ सभी उस पर टूट पड़े और मारकर खा गए. 

इसीलिए कहा गया है कि दुर्जनों से, विपरीत स्वभाव वालों से सोचसमझ कर ही मित्रता रखनी चाहिए. मौका मिलने पर वे मित्र का अहित करने में चूकते नहीं हैं. 




Post a Comment

0 Comments