मँहगा कैदी - लियो टॉलस्टॉय की कहानी | A short story by Leo Tolstoy

( सुप्रसिद्ध रुसी लेखक लिओ टॉलस्टॉय की एक कहानी का भावानुवाद )

किसी ज़माने में एक रियासत थी. उसकी आबादी भले ही कुल सात हजार थी लेकिन रियासतों वाले ठाटबाट पूरे थे. राजा था, महल था, मंत्री थे, जनरल, कर्नल सब थे. और तो और एक सेना भी थी जिसमें सिपाही थे पूरे साठ ! परन्तु साठ हों या साठ हजार, उससे क्या फर्क पड़ता है, कहते उसको सेना ही थे. 

रियासत को आमदनी हो इसलिए जनता से टैक्स वसूला जाता था. किन्तु टैक्स की आमदनी इतनी नहीं होती थी कि उससे राजा का भी पेट भर जाय, मंत्री और दूसरे प्रशासन का तो कहें ही क्या ! कारण ! आखिर राज्य में जनता तो गिनती की ही थी, उससे आखिर कितनी आमदनी हो सकती थी ?

लिहाज़ा बुद्धिमान राजा ने आमदनी का एक बढ़िया उपाय कर रखा था. उसने अपने राज्य में जुआघर खोलकर उन्हें ठेके पर दे रखा था. अब जुआ खेलने वाले हारें या जीतें, राजा को अपना शुल्क मिल जाता था. 

इस धंधे में विशेष आमदनी इसलिए होती थी क्योंकि देश की अन्य रियासतों में जुआ खेलने पर पाबंदी थी. लिहाज़ा जुए के शौकीनों के लिए यही एक रियासत थी जहां वे बेरोकटोक अपनी किस्मत आजमाने चले आते थे. स्वतंत्र राजा होने का यही फायदा था, कि रियासत में जुआ खेलाने से उसे कोई रोक नहीं सकता था. 

तो रियासत के जुआघर में देश भर से लोग जुआ खेलने आते थे. हालांकि राजा इस कमाई को पाप समझता था, किन्तु वह करता भी क्या ? शराफत के रास्ते से कितना धन कमाया जा सकता है ? धन तो चाहिए होता था, क्योंकि बिना धन के काम नहीं चलता था. इस कारण उसे जुआ खेलाना ही पड़ता था. 

किन्तु रियासत की प्रजा बड़ी सुशील थी. कहने को वहाँ कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, जज, वकील, क़ानून, पुलिस, सेना सब कुछ था, बाकायदा दरबार कचहरी लगते थे, सेना पुलिस की परेड होती थी, किन्तु फिर भी प्रजा इतनी सीधीसादी थी कि इन सब की शायद ही कभी जरूरत पड़ती थी. 

दैवयोग से एक दिन दूसरी रियासत से जुआ खेलने आये एक आदमी ने किसी आदमी का गला काट कर मार डाला. पुलिस थी सो अपराधी गिरफ्तार हो गया. कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, वकील सब जुटे और मुक़दमा चला. अपराधी पर अपराध सिद्ध हो गया. कोर्ट का फैसला हुआ कि इसे भी गला काटकर मार डाला जाए. जैसे को तैसा. 

किन्तु अब एक मुश्किल आन पड़ी. रियासत में गला काटने की कल (एक तरह का स्वचालित औजार) उपलब्ध न थी. होती भी क्यों, रियासत में अपराध ही ना के बराबर होते थे तो कौन ऐसी चीज़ें संभालकर रखेगा. 

राजा ने मंत्रियों की सलाह से दूसरे राज्य के राजा को पत्र लिखा कि वे गला काटने की कल भिजवाने का कष्ट करें. दूसरे राज्य का राजा बड़ा घाघ था. उसने तुरंत मौके का फायदा उठाने की सोच ली और संदेसा भिजवा दिया कि औजार तो मिल जाएगा किन्तु ऐसी चीज़ें आपसी व्यवहार में नहीं दी जा सकतीं. उसे खरीदना पड़ेगा और इसके दस हजार रुपये लगेंगे. 

दस हजार सुनकर राजा का सर चकरा गया. सोचने लगे कि इतने का तो आदमी नहीं इसके लिए दस हजार खर्च करूं ? 

उन्होंने दूसरे राजा को पत्र लिखा किन्तु उस राजा को भी पहले से ही पता चल चुका था इसलिए उसने भी खरीदने की ही बात कह दी. हालांकि उसने दाम कुछ घटाकर आठ हजार कर दिया. 

राजा ने बिचारा कि इतनी तो हमारी आमदनी नहीं जितने एक आदमी का गला काटने पर खर्च करने पड़ेंगे ? ये फ़ालतू खर्च मैं नहीं कर सकता ! 

उसने मंत्रियों को बुलाया और कहा कि आप किसी सिपाही से कहकर तलवार से उसका गला कटवा दीजिये. आखिर युद्ध में भी तो उन्हें यही करना पड़ता है ! 

मंत्रियों ने सेनापति सहित साठों सिपाहियों से पूछ लिया किन्तु कोई भी इस जघन्य कृत्य के लिए तैयार न हुआ.

अब राजा क्या करें ? मामले का पता पूरी दुनिया को चल चुका था ? न्याय तो करना ही था अन्यथा रियासत की न्यायपालिका की  मान-मर्यादा क्या बचेगी ?

राजा ने मंत्रियों की राय पर एक समिति बनाई. उस समिति ने एक उपसमिति बनाई. बड़े मंथन और झगडे-झांसे के बाद यह तय हुआ कि मृत्युदंड को आजन्म कारावास में बदल दिया जाए. 

राजा ने समिति की यह सिफारिश तुरंत मान ली किन्तु फिर समस्या खड़ी हो गई. राज्य में कहीं बंदीगृह ही नहीं था. किन्तु यह ऐसी समस्या नहीं थी जिसका हल निकालना बहुत कठिन हो. एक पुरानी सरकारी कोठरी काफी दिनों से खाली पड़ी थी, उसी में अपराधी को बंद करके पहरा लगा दिया गया. 

आदेश हुआ कि एक सिपाही रोज राजा के लंगर से कैदी के लिए भोजन लाएगा और एक हर समय कोठरी के बाहर पहरा देगा ताकि खूनी भाग न जाय. 

एक साल बाद एक दिन राजा राजधानी का हिसाब-किताब देख रहे थे. उसमें उन्होंने कैदी के भोजन और पहरे पर खर्च पांच सौ रुपये लिखा देखा तो वे चौंक गए. सोचने लगे - "एक कैदी का एक साल का खर्च पांच सौ रुपये ! कमबख्त अभी तो वह जवान है, अगर इसी तरह बुढ़ापे तक पड़ा रहा तो तब तक हमारी पूरी रियासत चट कर जाएगा !"

उसने तुरंत मंत्रियो को बुलाया और स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि इस कैदी का कोई उपाय करो ! मैं इस तरह से उसे बुढ़ापे तक नहीं पाल सकता !

एक मंत्री बोला - "पहरा हटा दो !"

दूसरा बोला - "कैदी भाग गया तो ?"

पहला बोला - "भाग गया तो हमारी मुसीबत कटी !"

इस तरह से पहरा हटा दिया गया और कोठरी का ताला खुला छोड़ दिया गया. किन्तु कैदी भागा नहीं. 

राजा के लंगर से रोटी लाने वाले सिपाही से रोटी ले लेता और खाकर आराम से कोठरी में पड़ा रहता. 

कुछ दिनों बाद रोटी लाने वाले सिपाही की ड्यूटी भी हटा दी गई. परन्तु इससे कैदी को कोई फर्क नहीं पड़ा. अब वह खुद ही जाकर राजा के लंगर से रोटी ले आता और खाकर आराम से कोठरी में पड़ रहता. 

भागने का उसने नाम तक न लिया. मंत्री बड़े चकित ! ये तो बड़ा ढीठ कैदी है ! भागता ही नहीं !

आखिर एक दिन एक मंत्री कैदी से बात करने के लिए आया. बोला - "भाई, हमने पहरा हटा लिया है. अब तुम आराम से भाग सकते हो. हमारे राजा साहब को भी तुम्हारे भागने का बिलकुल बुरा नहीं लगेगा. यहाँ कोठरी में पड़े पड़े क्यों अपना जीवन खराब कर रहे हो ?"

कैदी बोला - "मैं बिलकुल नहीं भागूँगा. इससे तो अच्छा था आप मुझे उसी समय मार ही देते ! अब आपने मुझे इतने दिनों से मुफ्त की रोटियाँ खिला-खिला कर निकम्मा बना दिया और अब मुझसे भाग जाने को कहते हो ? मैं अब कहीं नहीं जाने वाला ! मैं तो इसी कोठरी में प्राण दूंगा."

फिर से मंत्रियों की एक समिति विचार करने के लिए इकट्ठी हुई. कई दिनों की बैठकों के बाद यह तय पाया गया कि किसी तरह कैदी को सौ रुपये सालाना की पेंशन पर राजी कर लिया जाए और यहाँ से चलता कर दिया जाए. 

यह प्रस्ताव कैदी सहर्ष मान गया. आखिर अंधा क्या चाहे, दो आँखे ! 

अब वह पड़ोस की रियासत में स्थित अपने घर में आराम से रहता है, अपना काम धंधा करता है और हर साल बिला-नागा अपनी सौ रुपये की पेंशन इस रियासत के खजाने से ले जाता है. 

अपने शेष जीवन के लिए उसने बस एक ही बात का ध्यान रखने का संकल्प किया है कि किसी भी ऐसे राज्य में अपराध नहीं करना है जहां गला काटने की कल मौजूद हो और बंदीगृह के खर्च की परवाह न की जाती हो. 




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