आधी मूँछ - एक लोक कथा | Aadhi Munchh - Lok Katha in Hindi

किसी गाँव में बांकेलाल नाम का एक शातिर दिमाग आदमी रहता था. उसकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी क्योंकि उसके पास बहुत थोड़ी जमीन थी जिसमें बमुश्किल खाने लायक ही पैदा हो पाता था. किन्तु बचपन में उसके पिता उसे बताया करते थे कि हम लोग बहुत ऊंचे खानदान से हैं, हमारे पुरखे कभी अमुक इलाके के सामंत हुआ करते थे. बस, तभी से वह हमेशा अकड़कर चलता था और अपने को उसी सामंती खानदान का वारिस समझकर झूठी शान दिखाया करता था. 

जेबखर्च निकालने के लिए वह अक्सर लोगों से ठगी करने के नए नए तरीके सोचता रहता और उन्हें आजमाता रहता. एक बार वह गाँव के एक सेठ के पास पहुंचा और बोला - "सेठजी, आप दिन भर दुकान पर ही बैठे रहते हैं, इस तरह तो आपका स्वास्थ्य खराब हो जाएगा. कभी दुकान छोड़कर इधरउधर खुली हवा में घूमने भी जाया कीजिये. चलिए आज मेरे साथ, मैं खेतों की ओर जा रहा हूँ, आपको भी घुमा लाऊँगा."

उस समय दुकान पर कोई ग्राहक न था, इसलिए सेठ ने दुकान नौकर के हवाले की और बांकेलाल के साथ खेतों की ओर चल दिया. थोड़ी दूर चलने पर खेत दिखाई देने लगे. एक खेत में बाजरे की फसल लगी हुई थी. उसे देखकर बांकेलाल सेठ से बोला - "देखिये सेठजी, इस खेत में इस साल कितना अच्छा गन्ना उगा है !"

सेठ बोला, "ये गन्ना नहीं बाजरे की फसल है."

बांकेलाल सेठजी की ओर परिहासपूर्ण दृष्टि डालते हुए बोला, "सेठजी, किसान मैं हूँ कि आप ? क्या आप फसलों के बारे में मुझसे ज्यादा जानते हैं? ये गन्ने की ही फसल है."

सेठ भले खेती नहीं करता था किन्तु इतना अनभिज्ञ नहीं था कि बाजरा और गन्ने में अंतर न जानता हो. वह दृढ स्वर में बोला, "भले आप खेती करते हैं बांकेलालजी, मैं नहीं करता हूँ, किन्तु इतना भलीभांति जानता हूँ कि ये बाजरा ही है."

अब तो बांकेलाल को ताव आ गया. बोला, "लगाते हो शर्त ? मैं कहता हूँ ये गन्ना है..."

सेठ भी जोश में बोला, "तुम्हारी जैसी मर्जी हो वैसी शर्त लगा लो, ये गन्ना नहीं बाजरा ही है ..."

बांकेलाल तो इसी मौके की तलाश में था, बोला - "ठीक है तो फिर लग गई शर्त .... अगर ये गन्ना निकला तो मैं तुम्हारा सिर काट लूँगा और अगर ये बाजरा निकला तो तुम मेरा सिर काट लेना !"

सेठ जानता था कि खेत में बाजरा ही है इसलिए बांकेलाल की अजीब शर्त सुनकर भी निर्भीक स्वर में बोला, "ठीक है, लग गई शर्त !"

इसके बाद दोनों वापस लौट आये और अपने - अपने घरों को चले गए. 

करीब एक - डेढ़ महीने बाद बाजरे के पौधों में बाली निकलने लगी और उसमें बाजरे के दाने पड़ने लगे. तब एक दिन हाथ में एक बाली तोड़कर लिए हुए बांकेलाल सेठ की दुकान पर पहुंचा और बोला, "सेठ जी, आप शर्त जीत गए.... उस खेत में सचमुच बाजरा ही था जबकि मैं उसे गन्ना समझ रहा था."

सेठ विजयी भाव से मुस्कुराते हुए बोला, "किसान होकर भी आप इतना नहीं समझ पाए कि वह बाजरा है जबकि मैं दूकानदार होकर भी पहचान गया !"

बांकेलाल बोला, "आप ठीक कहते हैं, सचमुच मुझसे पहचानने में गलती हो गई. लेकिन आप शर्त जीत गए इसलिए लीजिये काटिए मेरा सिर."

सेठ बांकेलाल की बात को मजाक समझकर हंसने लगा किन्तु बांकेलाल फिर से बोला, "हँस क्या रहे हैं सेठजी, चलिए मेरा सिर काटिए !"

सेठ फिर भी हँसता हुआ बोला, "अरे वह तो हंसी-मजाक की बात थी ...."

"मैं किसी के साथ हंसी-मजाक नहीं करता ...," बांकेलाल सेठ की बात काटकर, सहसा तेवर बदलता हुआ, कठोर स्वर में बोला, "आप शर्त जीत गए हैं तो अब आपको मेरा सिर काटना ही पड़ेगा ... क्या आप जानते नहीं मैं किस खानदान से हूँ ? हमारे खानदान में अगर जबान से कोई बात कह दी तो उसे पूरा किये बिना नहीं छोड़ते, चाहे कुछ भी हो जाए !"

अब तो सेठ के चेहरे का रंग उड़ने लगा, क्योंकि बांकेलाल का चेहरा देखकर लग रहा था कि वह अपनी बात को लेकर गंभीर है. 

"अरे भाई....हहह..... ऐसी छोटी-मोटी बातों पर कहीं सिर काटे जाते हैं ....हहह... ," सेठ फीकी हंसी हँसते हुए बात को टालने की गरज से बोला. 

"ये छोटी मोटी बात नहीं है ... हमारे बीच सिर काटने या कटवाने की ही शर्त लगी थी ... अगर मैं जीत जाता तो अभी आपका सिर काटकर ले जाता, उसी तरह अब मैं हार गया हूँ तो कटवाकर ही जाऊँगा. चलिए, जल्दी कीजिये." बांकेलाल जोर जोर से चिल्लाता हुआ बोला. 

अब सेठ को समझ में आया कि उसने मुसीबत मोल ले ली है. यह बला आसानी से टलने वाली नहीं. वह भी अड़कर बैठ गया, "मैं नहीं काटूँगा सिर, मुझे नहीं काटना ..."

"क्यों नहीं काटोगे ? शर्त जीते हो तो काटना तो पड़ेगा ..."

"नहीं काटूँगा ..."

"काटना पड़ेगा ..."

इस तरह होते-होते दोनों में विवाद होने लगा तो वहाँ तमाशा देख रहे लोगों ने सलाह दी कि सरपंच के पास जाओ, वही फैसला करेंगे. 

दोनों सरपंच के पास पहुंचे. सरपंच ने पूरा मामला सुना और बोला - "पूरा मामला सुनने के बाद हमें यह समझ में आया है कि शर्त हारने के बाद बांकेलाल के सिर पर अब सेठजी का अधिकार है. वह अब सेठजी की संपत्ति है. क्यों ठीक है न बांकेलाल ?"

"जी ठीक है, सरपंचजी," बाकेलाल बोला.

"तो फिर ये सेठ की मर्जी है कि वह उसे कब काटते हैं ... आज काटते हैं या फिर आगे जब उनकी मर्जी हो तब." सरपंच ने फैसला दिया. 

यह सुनकर सेठजी तो संतुष्ट हो गए लेकिन बांकेलाल की शातिर बुद्धि ने एक और उलझन पैदा कर दी. 

"चूंकि मेरा सिर अब सेठ की संपत्ति हो चुका है इसलिए मैं इसे अपने शरीर पर मुफ्त में नहीं ढो सकता... सेठ को मुझे इसको अपने ऊपर रखने का किराया देना होगा !" बांकेलाल बोला. 

सेठ किसी भी तरह इस झंझट से मुक्ति चाहता था. उसने किराया देने के लिए तुरंत हामी भर दी. दो हजार रुपये महीने पर बात पक्की हो गई. 

इसके बाद हर महीने बांकेलाल सेठ की दुकान पर आता और दो हजार रुपये ले जाता. यह कार्यक्रम करीब छः महीने चलता रहा. इसके बाद सेठ का बड़ा लड़का जो व्यापार के लिए परदेश गया हुआ था, लौटकर घर आया. 

एक बार सेठ का लड़का भी दुकान पर बैठा हुआ था, तभी बांकेलाल अपना किराया अर्थात दो हजार रुपये लेने आया. सेठ ने चुपचाप उसे रुपये दिए और वह लेकर चला गया. उसके जाने के बाद लड़के ने पूछा - "पिताजी, इन्हें आपने दो हजार रुपये किस बात के दिए ? क्या आपने इन्हें अपने यहाँ कोई नौकरी दे दी है ?"

सेठजी ने शर्त में सिर काटने वाली पूरी कहानी लड़के को कह सुनाई. लड़का समझ गया कि बांकेलाल ने उसके पिता को जाल में फांस कर रुपये एंठने की तरकीब लगाईं है जिसमें वह सफल हो गया है. 

लड़के ने सेठजी से कहा - "पिताजी, आप कल सुबह बांकेलाल को यहाँ बुलाइए."

सेठजी ने अगले दिन सुबह-सुबह बुलावा भेजकर बांकेलाल को दुकान पर बुलवा लिया. लड़का भी वहीं मौजूद था और साथ ही मौजूद था एक नाई, जिसे लड़के ने बुलाया था. वह एक ओर बैठा अपना उस्तरा तेज कर रहा था. 

बांकेलाल के आते ही लड़का बोला, "बांकेलाल जी, क्या ये सच है कि आपका सिर हमारी संपत्ति है ?" 

बांकेलाल के 'हाँ' कहते ही लड़का बोला, "तो फिर जरा इधर नाई के सामने जाकर बैठिये ?"

"क्यों ?" बांकेलाल ने पूछा. 

"आपकी आधी मूँछ काटनी है. उसे नमूने के तौर पर तुर्किस्तान भेजना है. आजकल वहाँ मूंछों के बालों की बड़ी मांग है. अगर उन्हें  पसंद आई तो बाद में बाक़ी की आधी भी भिजवा देंगे." लड़के ने कहा. 

"तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या .... ?" बांकेलाल गुस्से में बोला, "मेरी आधी मूँछ काटने की बात सोचने की तेरी हिम्मत कैसे हुई ? जानता भी है, ये मूँछ हमारी खानदानी शान है. "

लड़का शांत स्वर में बोला - "ऊंचे स्वर में मत बोलिए बांकेलाल जी. अब आपका सिर, आपका नहीं है. वह हमारी संपत्ति है. उस पर उगे बाल और मूंछें, आँखें, नाक, कान सब हमारा है. फिलहाल मूंछों की ही जरूरत है इसलिए मूंछे ही काट रहे हैं. चुपचाप कटवा लीजिये."

आसपास खड़े अन्य लोगों ने भी लड़के की बात का समर्थन किया. यह देखते ही बांकेलाल के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वह सोचने लगा, आधी मूँछ कटवाने से फिलहाल तो वह गाँव भर में उपहास का पात्र ही बनेगा, लेकिन भविष्य में यह लड़का नाक, कान कटवाकर, आँखें निकलवा कर मेरी दुर्गति भी कर सकता है. 

बस, यह ख़याल दिमाग में आते ही वह हिरन की तरह वहाँ से सरपट भागा .... ऐसा भागा .... ऐसा भागा .... कि फिर अगले तीन चार महीनों तक गाँव में नजर नहीं आया. 

बाद में सरपंच ने किसी तरह उसे खोज खाज कर उसकी सेठ से सुलह करा दी, और जो पैसे उसने ऐंठे थे वे सेठ को वापस करा दिए, तब कहीं जाकर वह गाँव में रहने आ पाया. 




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