धूर्तनगरी - हिन्दी लोक कथा | Dhoortnagari - Hindi Lok Katha

किसी जमाने में घोड़ों का एक व्यापारी था. उसने इस व्यापार में बहुत धन कमाया और अपने बेटे धर्मसेन को भी यही काम सिखाया. जब वह वृद्ध हो गया तब मरते समय उसने अपने बेटे से कहा - "बेटा, घोड़ों का व्यापार करना जो मैंने तुम्हें सिखाया है. वह बहुत अच्छा है. तुम इसी काम को करते रहना, तुम्हें जीवन में कभी धन की कमी न होगी."

फिर उसने एक हिदायत दी - "कभी भूलकर भी कंटकपुरी नामक नगरी में व्यापार करने मत जाना !"

धर्मसेन पूछना चाहता था कि आखिर कंटकपुरी क्यों नहीं जाना है किन्तु वृद्ध व्यापारी की हालत इतनी खराब थी कि उसकी पूछने की हिम्मत नहीं हुई. 

व्यापारी की मृत्यु के बाद धर्मसेन ने विधिविधान से अपने पिता का अंतिमसंस्कार किया और वापस अपने व्यापार में लग गया. धर्मसेन बुद्धिमान होने के साथ साथ पिता का आज्ञाकारी भी था किन्तु एक बात कभी कभी उसके दिमाग में खटकती थी कि आखिर पिताजी ने कंटकपुरी जाने से उसे मना क्यों किया ?

कुछ सालों तक वह कंटकपुरी नामक उस नगरी में व्यापार के लिए जाने से बचता रहा. परन्तु धीरे धीरे जब यह प्रश्न उसके दिमाग में कांटे की तरह चुभने लगा तब अपने स्वर्गीय पिता की हिदायत के बावजूद एक दिन वह कंटकपुरी पहुँच ही गया. वह अपने दिमाग के कौतूहल का समाधान करना चाहता था कि इस नगरी में आखिर ऐसा क्या है जो यहाँ आने के लिए पिताजी ने विशेष रूप से मना किया. 

वह अपने साथ तीन घोड़े लेकर वहाँ पहुंचा. नगरी के बाहर एक तालाब था जिसके किनारे धर्मसेन ने अपना पड़ाव डाला. लम्बी यात्रा के कारण उसे थकान हो चली थी और भूख भी लग रही थी. वह तालाब से मछलियाँ पकड़कर पकाकर खाना चाहता था किन्तु उसके पास मछलियाँ पकड़ने का साजोसामान नहीं था. 

तभी उसका ध्यान गया कि तालाब के किनारे बहुत सारे बगुले भी हैं. उसने सोचा कि क्यों न आज बगुले का शिकार करके ही पेट भरा जाय ? उसने अपना धनुष बाण निकाला और एक बगुले को लक्ष्य करके तीर छोड़ दिया. बगुला तुरंत वहीं ढेर हो गया. 

अभी वह अपने शिकार को उठा भी न पाया था कि तभी दूर बैठा मछलियाँ पकड़ रहा एक मछुआरा दौड़ा दौड़ा आया और बगुले के पास बैठकर रोते हुए धर्मसेन से कहने लगा - "हाय, हाय ये आपने क्या किया ? आपने मेरे पिताजी को मार डाला ! अब मेरा क्या होगा ?"

धर्मसेन मछुआरे की बात सुनकर आश्चर्यचकित रह गया. बोला - "ये बगुला तुम्हारे पिताजी थे ?"

मछुआरा - "हाँ, ये मेरे पिताजी थे. मृत्यु के बाद इन्होने बगुले के रूप में जन्म ले लिया था और यहाँ मछलियाँ पकड़ने में मेरी मदद करते थे! हाय हाय ... अब मेरा पालनपोषण कैसे होगा ?"

धर्मसेन को मछुआरे की बात पर विश्वास नहीं हुआ, बोला - "कैसी फ़ालतू बातें करते हो ? मैं नहीं मानता कि ये बगुला तुम्हारा पिता था."

मछुआरा खड़ा होकर बोला - "आप मुझे मेरे पिता की मौत का हर्जाना दीजिये अन्यथा मैं राजा से आपकी शिकायत करूंगा."

धर्मसेन को लगा कि मछुआरा पागल है. वह बेपरवाही से बोला - "हाँ, हाँ ठीक है. जाओ कर दो राजा से शिकायत."

मछुआरा पैर पटकता हुआ गुस्से में राजा के महल की ओर चला गया. 

मछुआरे के जाने के बाद धर्मसेन सोच ही रहा था कि अब उसे क्या करना चाहिए तभी वहाँ पर न जाने कहाँ से एक नाई आ पहुंचा. वह धर्मसेन के पास आकर बोला - "हुजूर, आपकी दाढ़ी बना दूँ ?"

धर्मसेन ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फिराया तो वह सचमुच बढ़ी हुई थी. उसने नाई से पूछा - "पैसे कितने लोगे ?"

नाई जुबान में मिठास भरकर बोला - "हुज़ूर आपसे क्या माँगना ? आप तो कुछ भी दे देना जिसमें मैं खुश हो जाऊं."

धर्मसेन हजामत बनवाने बैठ गया. दाढ़ी बन चुकने के बाद उसने नाई को एक रूपया दिया. नाई बोला - "हुज़ूर, ये क्या ? बस एक रूपया ? कम से कम इतना दीजिये जिसमें मैं खुश हो जाऊं."

धर्मसेन ने पांच रुपये दिए, पर नाई बोला - "हुज़ूर ये भी कम हैं ... इतने में मैं खुश नहीं हुआ."

अबकी बार उसने दस रुपये दिए पर नाई फिर वही बात बोला - "मैं खुश नहीं हुआ हुज़ूर."

अब धर्मसेन को क्रोध आ गया. बोला - "तो फिर तुझे कितने चाहिए ?"

नाई बोला - "एक हजार से कम में मैं खुश नहीं होऊंगा."

"दाढ़ी बनाने के हजार रुपये !!" धर्मसेन क्रोध और आश्चर्य से चीखा, बोला - "दस रुपये से ज्यादा एक फूटी कौड़ी न दूंगा .... तुझे लेना है तो ले, वरना भाग जा !"

नाई भी कोई सज्जन पुरुष नहीं था. स्वर में कठोरता लाते हुए बोला - "शान्ति से हजार रुपये दे दीजिये हुज़ूर, वरना राजा से आपकी शिकायत करूंगा."

"हाँ जा कर दे राजा से शिकायत," धर्मसेन ने गुस्से में कहा. यह सुनकर नाई भी राजा के पास शिकायत करने चला गया. 

कुछ देर बाद धर्मसेन का गुस्सा शांत हुआ तो उसने सोचा कि चलो नगर के भीतर जाकर कुछ खा पीकर आया जाए. 

वह नगरी के भीतर बाज़ार में जा पहुंचा. अभी वह खाने पीने की सामग्री की दुकान की तलाश करते हुए घूम ही रहा था कि तभी एक आदमी उसके पास आया जिसका एक कान कटा हुआ था. 

कान कटा आदमी धर्मसेन से बोला - "अरे बेटा अच्छा हुआ तुम मिल गए ! मैं तुम्हें ही ढूंढ रहा था. बरसों पहले मैंने अपना दांया कान तुम्हारे पिताजी के पास गिरवी रखकर दस रूपया क़र्ज़ लिया था. मैं वे दस रुपये तुम्हें वापस कर देता हूँ. तुम मुझे मेरा कान वापस दिलवा दो."

इतना कहकर वह आदमी दस रुपये धर्मसेन की ओर बढाने लगा. 

धर्मसेन चकित होकर उस आदमी की ओर देखते हुए बोला - "मेरे पिताजी ने कभी तुम्हारे कान के विषय में मुझसे कुछ नहीं कहा !"

आदमी बोला - "वो सब मुझे नहीं पता .... मैं इतने साल से ये दस रुपये लेकर तुम्हें और तुम्हारे पिताजी को ढूँढ़ता फिर रहा हूँ ... इन्हें लो और मेरा कान वापस करो. अगर नहीं करोगे तो मैं राजा से तुम्हारी शिकायत करूंगा."

अब तो धर्मसेन को चक्कर से आने लगे. अब उसे समझ में आ रहा था कि उसके पिताजी ने उसे इस नगरी में आने क्यों मना किया था. ये नगरी तो लम्पटों और ठगों से भरी हुई है. 

उसने जैसे-तैसे डांट-डपट कर उस कान कटे आदमी को भगाया तो वह आदमी राजा के दरबार में शिकायत करने चला गया. धर्मसेन खाने का विचार त्यागकर वापस अपने पड़ाव की ओर चल दिया. 

अपने पड़ाव पर जब वह पहुंचा तो वहां उसे राजा के सिपाही इंतज़ार करते हुए मिले. बोले - "चलो, तुम्हें राजा के दरबार में हाजिर होना है."

राज दरबार में सुनवाई शुरू हुई. सबसे पहले मछुआरा बोला- "महाराज, मेरे मृत पिता बगुले का रूप धारण कर बरसों से मछलियाँ पकड़ने में मेरी मदद करते थे. धर्मसेन ने उन्हें मारकर मुझे बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया है. मुझे हर्जाना दिलवाया जाए."

राजा ने धर्मसेन की ओर देखते हुए फैसला सुनाया - "तुम अपना एक घोड़ा हर्जाने के तौर पर इस मछुआरे को दोगे."

इसके बाद कान कटा आदमी अपनी फरियाद लेकर सामने आया - "महाराज, मैंने धर्मसेन के पिता के पास अपना कान गिरवी रखकर दस रुपये क़र्ज़ लिया था. मैं क़र्ज़ चुकाने को तैयार हूँ मगर ये मेरा कान देने में आनाकानी कर रहे हैं. उलटे मुझे मारने पीटने की धमकी देते हैं."

राजा ने फैसला दिया कि हर्जाने के तौर पर इस आदमी को भी एक घोड़ा दे दिया जाए. 

अब नंबर था नाई का. नाई राजा से बोला - "महाराज, इन महाशय ने मुझसे हजामत बनवाई और कहा था कि बदले में ये मुझे खुश कर देंगे. किन्तु ये मुझे दस रुपये में टरकाना चाहते हैं जिसमें मैं खुश नहीं हूँ. यदि आप मुझे इनसे एक हजार रुपये या फिर इनका एक घोड़ा दिलवा देंगे तो मैं खुश हो जाऊँगा."

राजा ने कहा कि तीसरा घोड़ा नाई को दे दिया जाए. 

अब धर्मसेन के पास गले में एक रत्नहार को छोड़कर कुछ न बचा था. राजा के आदेश के मुताबिक़ उसे अपने तीनों घोड़े तीनों फरियादियों को दे देने थे. वह सोच ही रहा था कि अब क्या किया जाए कि तभी राजा का दस वर्षीय पुत्र खेलते - खेलते दरबार में आ पहुंचा और आकर राजा की गोद में बैठ गया. 

सहसा धर्मसेन को एक युक्ति सूझी. उसने अपने गले का बहुमूल्य रत्नहार उतारा और राजा की गोद में बैठे राजकुमार को पहना दिया. यह देखकर दरबार में उपस्थित सभी लोग खुश होकर हर्षध्वनि करने लगे और तालियाँ बजाने लगे. राजा भी बहुत खुश हुआ. 

धर्मसेन ने दरबारियों को संबोधित करते हुए कहा - "कंटकपुरी के सम्माननीय नागरिकों, मैंने अपने पूर्वजों का ये बहुमूल्य रत्नहार आपके राज्य के चिरंजीव राजकुमार को भेंट किया है. क्या आप लोग इससे खुश हैं ?

दरबार में उपस्थित सभी लोग एक स्वर में बोल उठे - "हाँ, हम लोग बहुत खुश हैं."

अब धर्मसेन ने नाई की ओर मुखातिब होकर पूछा - "तुम भी मेरी इस भेंट से खुश हो या नहीं ?"

लाचार होकर नाई को कहना पड़ा - "हाँ मैं भी बहुत खुश हूँ."

अब धर्मसेन राजा से बोला - "महाराज, जैसा कि इसने अभी खुद बताया, मैंने राजकुमार को भेंट देकर इस नाई को खुश कर दिया है. मुझे लगता है अब मुझे इसे एक घोड़ा देने की जरूरत नहीं है."

"तुम बिलकुल ठीक कहते हो. ये खुश हो गया है इसलिए अब इसे घोड़ा देने की कोई जरूरत नहीं." राजा ने कहा. 

अब धर्मसेन ने कान कटे आदमी को अपने पास बुलाया और कहा - "भाईसाहब, आपका कान वापस करने में मुझे कोई एतराज नहीं है लेकिन एक समस्या है. दरअसल मेरे पिताजी का कान गिरवी रखकर क़र्ज़ देने का इतना बड़ा कारोबार था कि उनके पास हजारों कान गिरवी पड़े हुए हैं. अब आपका कान कौनसा है इसकी पहचान करने के लिए आप अपना बांया कान काटकर मुझे दे दीजिये. मैं मिलान करके आपका कान लाकर दे दूंगा. "

धर्मसेन के इतना कहते ही उस आदमी ने हाथ से अपना बचा हुआ कान छुपाया और वहाँ से झट नौ दो ग्यारह हो गया. 

अंत में धर्मसेन ने मछुआरे को सामने बुलाया और राजा से निवेदन किया - "महाराज मेरे पिताजी का पांच साल पहले देहांत हो गया था और उन्होंने एक मछली के रूप में आपके नगर में स्थित तालाब में जन्म लिया था. मैं उन्हें ही लेने आपके नगर में आया था, किन्तु इससे पहले कि मैं उन्हें तालाब से निकाल पाता, मेरे सामने ही उस बगुले ने, जो कि इस मछुए के पिता थे, उन्हें निगल लिया. इसी कारण मुझे उस बगुले को मारना पड़ा. यदि वह बगुला मेरे पिता को न खाता तो आज वह जीवित होते."

इतना कहकर धर्मसेन ने आँखों में आंसू भर लिए. राजा धर्मसेन की बात से न सिर्फ सहमत हुआ बल्कि मछुआरे को फटकार लगाते हुए उसे भी कोई हर्जाना न देने का आदेश कर दिया. 

राजा धर्मसेन द्वारा उसके पुत्र को दिए गए उपहार और उसकी बुद्धिमत्तापूर्ण बातों से बहुत खुश हो गया था. उसने एक हफ्ते तक उसे अपना राजसी मेहमान बनाकर रखा और अंत में कई बहुमूल्य उपहार देकर विदा किया. 




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