पुरखों की तलवार - लोक कथा | Purakhon ki talwar - A Folk tale in Hindi

बहुत पुरानी बात है, किसी गाँव में बांकेलाल नाम का एक आदमी रहता था. वह घर का कामधाम कुछ नहीं करता था बल्कि रातदिन इसी उधेड़बुन में रहता था कि दूसरों को कैसे ठगा जाय. उसके घर में पुरखों के जमाने की एक बेहद पुरानी जंग खाई तलवार पड़ी हुई थी. कभी किसी जमाने में उसका कोई पुरखा राजा की सेना में काम करता होगा, यह तलवार उसी की थी. 

उसी गाँव में एक साहूकार भी रहता था. वह लोगों की चीज़ें गिरवी रखकर क़र्ज़ देने का काम किया करता था.

एक दिन बांकेलाल ने साहूकार को ठगने की योजना बनाई. वह उसी पुरानी तलवार को लेकर साहूकार के पास पहुंचा और कहने लगा - "सेठजी, यह मेरे पुरखों की तलवार है. इस तलवार से उन्होंने न जाने कितनी लडाइयां लड़ीं और जीतीं. यह तलवार नहीं, मेरे खानदान की इज्जत है. यदि कोई इसके वजन के बराबर सोना दे तो भी मैं इसे न बेचूँ. पर क्या करूं, आज मेरे ऊपर वक़्त ऐसा आन पड़ा है कि मजबूर होकर मुझे इसे आपके पास गिरवी रखने आना पड़ा है. यूँ समझिये अपनी इज्जत आपके पास गिरवी रखकर जा रहा हूँ. बस मुझे एक हजार रुपये की जरूरत है."

साहूकार ने ध्यान से तलवार को देखा तो समझ गया कि इसमें जितना लोहा लगा है उसकी कीमत पचास रुपये की भी नहीं है. किन्तु बांकेलाल जिस तरह तलवार को अपनी इज्जत बता रहा था, वह सुनकर उसे लगा कि दूसरों के लिए न सही, किन्तु इस आदमी के लिए यह तलवार बेशकीमती है. आखिर उसके पुरखों की निशानी है. इसे वह गिरवी रखकर छुडायेगा जरूर. 

यही सोचकर साहूकार ने तलवार गिरवी रखकर एक हजार रुपये बांकेलाल को दे दिए. अब पचास रुपये की तलवार के एक हजार मिल गए, तो बांकेलाल को क्या पड़ी थी कि वह उसे छुड़ाने की सोचे भी. वह तो तलवार साहूकार को देकर भूल गया. 

उधर जब कुछ महीने बीत गए, रकम पर ब्याज बढ़ने लगा, तो साहूकार को चिंता होने लगी कि बांकेलाल अपने पुरखों की तलवार लेने आ क्यों नहीं रहा ? 

एक दो बार उसने बांकेलाल से तगादा भी किया तो बांकेलाल ने यह कहकर टाल दिया कि अभी पैसे नहीं है, बाद में उठाऊँगा. धीरे धीरे दो साल हो गए और साहूकार को विश्वास हो गया कि बांकेलाल चालाकी से पचास रुपये की तलवार उसे हजार रुपये में टिका गया है, वह उसे कभी नहीं छुड़ाने वाला. 

अब साहूकार ने भी अपना दिमाग चलाया. उसने गाँव में अपनी जान पहचान के लोगों से कहना शुरू किया कि भाई, बांकेलाल की तलवार जो मेरे यहाँ गिरवी पड़ी थी, कुछ दिनों से मिल नहीं रही. लगता है कहीं खो गई या कोई चुरा ले गया. 

उड़ते-उड़ते यह बात बांकेलाल के कानों तक भी पहुंची. सुनते ही बांकेलाल की बांछें खिल गईं. उसने सोचा कि ये तो बहुत अच्छा हुआ. अब मैं साहूकार से हर्जाने के कम से कम दस हजार वसूल करूंगा. 

उसने साहूकार के एक हजार रुपये मय ब्याज के जेब में रखे और पहुँच गया उसकी दुकान पर. रुपये साहूकार के सामने फेंककर बोला, "सेठजी, अपने पुरखों की तलवार छुड़ाने आया हूँ. गिन लो अपने रुपये मय ब्याज के, और मेरी तलवार दे दो."

साहूकार घबराने का नाटक करते हुए बोला, "बांकेलाल भाई, तलवार मिल नहीं रही, मैंने बहुत ढूँढा न जाने कहाँ गुम हो गई...तुम चाहो तो ये रकम वापस न करो, मैं ब्याज भी छोड़ता हूँ !"

बांकेलाल मन ही मन खुश होते हुए, किन्तु ऊपर से गुस्सा प्रकट करते हुए चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा, "क्या कहा ? मेरे पुरखों की तलवार तुमने खो दी ! तुम्हें पता है वो तलवार मेरे खानदान की शान थी, इज्जत थी, कितनी पीढ़ियों से उसे संभालकर रखा हुआ था और तुमने उसे खो दिया ! तुम्हें लगता है इन थोड़े से रुपयों के लिए मैं उस अनमोल तलवार को छोड़ दूंगा. कभी सोचना भी मत ! मुझे तो लगता है इतनी प्राचीन और दुर्लभ तलवार तुमने किसी को मँहगे दामों में बेच दी है और पैसा डकार गए हो. मैं कुछ नहीं जानता, मुझे मेरी तलवार चाहिए, कहीं से भी लाकर दो ..."

बांकेलाल का चिल्लाना सुनकर वहां गांववालों की भीड़ इकट्ठी होने लगी.  बांकेलाल सोच रहा था कि तलवार तो खो ही चुकी है, इसलिए अब मैं इस सेठ से कम से कम दस हजार रुपये हर्जाना वसूल करूंगा. भीड़ देखकर वह और भी उत्तेजित होकर चीखने - चिल्लाने लगा ताकि हर्जाना मांगने के लिए उपयुक्त माहौल बन जाय. 

उधर साहूकार ने जब देखा कि पर्याप्त भीड़ इकट्ठी हो गई है, तब उसने बांकेलाल द्वारा फेंके गए रुपये समेटकर अंटी में दबाये और बोला - "भाइयो, मैंने अपने गोदाम में इनकी तलवार बहुत खोजी पर मिली नहीं, मैं तो उसके बदले में अपनी रकम और ब्याज दोनों छोड़ने को तैयार हूँ, किन्तु ये मान ही नहीं रहे. आप लोगों की तसल्ली के लिए एक बार फिर से जाकर देखता हूँ...मिल जाए तो ठीक, वर्ना जो भी हर्जाना आप लोग कहें, मैं भरने को तैयार हूँ."

बांकेलाल यही तो सुनना चाहता था कि साहूकार हर्जाने की बात करे, किन्तु भीड़ में से कुछ लोग बोले, "हाँ, हाँ ! एक बार फिर गोदाम में खोजकर देख लो, शायद मिल जाए. आखिर वह तलवार बांकेलाल के परिवार की शान थी."

तलवार कहीं खोई तो थी नहीं. उसे तो साहूकार ने बड़े जतन से छुपाकर रख दिया था. इसलिए वह गोदाम में गया और थोड़ी देर ढूँढने का नाटक करके उधर से तलवार हाथ में लिए ख़ुशी से चिल्लाता आया - "मिल गई .. मिल गई ... बांकेलाल की तलवार मिल गई !"

तलवार देखते ही बांकेलाल का मुँह सूख गया. लेकिन अब वह क्या कर सकता था. गांववालों के सामने अपनी तलवार लेकर चुपचाप घर चले जाने के अलावा उसके पास और कोई रास्ता नहीं था. 

इस तरह साहूकार ने अपनी पूरी रकम, मय ब्याज के वसूल कर ली. 




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