राजा का कृपापात्र - लोक कथा | Raja ka Kripapatra - Lok Katha in Hindi

प्राचीनकाल की बात है. वर्धमान नामक नगरी में सुजय और विजय नाम के दो बड़े व्यापारी हुआ करते थे. दोनों वस्त्रों का व्यापार करते थे और उनकी दुकानें मुख्य राजपथ पर आमने-सामने स्थित थीं. 

एक दिन दोपहर को सुजय ने देखा कि सामने स्थित विजय की दुकान पर राजमहल के कर्मचारियों की वर्दी पहने एक व्यक्ति आया और विजय से कुछ देर बातें करके चला गया. सुजय ने सोचा कि शायद वह राजकर्मचारी विजय का परिचित होगा या फिर कुछ खरीदने आया होगा. 

इसके करीब तीन दिन बाद, सुबह - सुबह सुजय अपनी दुकान खोलकर बैठा था. सामने स्थित विजय की दुकान भी खुल चुकी थी. तभी सुजय ने देखा कि वही राजकर्मचारी फिर से विजय की दुकान पर आया और अबकी बार उसके साथ विजय भी उठकर राजमहल की ओर चला गया. इसके करीब एक घंटे बाद विजय वापस अपनी दुकान पर लौट आया. 

अगले दिन सुबह - सुबह फिर वही राजकर्मचारी विजय की दुकान पर दिखाई दिया और विजय उसके पीछे पीछे राजमहल की ओर चला गया. फिर कुछ देर बाद वह वापस अपनी दुकान पर आकर बैठ गया. 

अब तो नित्य यही क्रम चलने लगा. सुबह - सुबह राजकर्मचारी आता, विजय उसके साथ उठकर चला जाता, फिर कुछ देर बाद वापस अपनी दुकान पर आकर बैठ जाता. यही देखते देखते सात - आठ रोज हो गए तो सुजय के दिमाग में कीड़ा कुलबुलाने लगा कि आखिर यह राजकर्मचारी रोज विजय की दुकान पर क्यों आता है और विजय उसके साथ रोज राजमहल क्यों जाता है ? 

आखिरकार जब रहा न गया तो एक दिन शाम के वक़्त सुजय विजय की दुकान पर पहुँच गया और पूछने लगा - "विजय भाई, एक बात बताओ, आजकल राजासाहब रोज तुम्हें बुला भेजते हैं, आखिर क्या बात है ?"

विजय कुछ चिढ़कर बोला - "मेरे और राजासाहब के बीच क्या बात है, ये मैं तुम्हें क्यों बताऊँ ?"

विजय के इस रूखे व्यवहार से सुजय सहम गया और वापस अपनी दुकान पर चला आया. किन्तु उसके दिमाग की जिज्ञासा शांत नहीं हुई कि आखिर विजय को राजा साहब रोज क्यों बुला भेजते हैं.

रात को भोजन करते समय उसने अपनी पत्नी को पूरी बात बताई और कहा - "जरा तुम भी सोचकर देखो कि आखिर राजा को विजय से ऐसा कौनसा काम होता होगा जो उसे रोज बुलावा भेजकर बुलवा लेता है ?"

पत्नी मुँह बनाकर बोली - "इसमें सोचने वाली कौनसी बात है भला ? जरूर विजय राजा का विशेष कृपापात्र दोस्त बन गया है तभी रोज उनसे मिलने जाता है. राजा साहब सुबह - सुबह साथ साथ चाय नाश्ता करने के लिए विजय को बुलाते होंगे और क्या ? क्या तुम नहीं जानते कि ये जो राजा लोग होते हैं, ये कभी अकेले चाय नाश्ता नहीं करते न कुछ खाते पीते हैं, बल्कि साथ में दोस्तों को भी बिठाते हैं, उनसे हँसते - बतियाते हैं."

पत्नी की बात सुजय को जंच गई. जरूर ऐसी ही बात होगी. लगता है विजय किसी तरह राजा के साथ दोस्ती गांठने में सफल हो गया है. तभी उसने आज मुझसे सीधे मुँह बात नहीं की. राजा का कृपापात्र बन गया है तो नाजनखरे तो दिखाएगा ही. 

सुजय को कुछ सोचते देख पत्नी बोली - "तुम भी क्यों नहीं राजा का कृपापात्र बनने की कोशिश करते ? इससे व्यापारियों के बीच तुम्हारी बहुत शान बढ़ेगी."

सुजय बोला - "शान तो बढ़ेगी मगर मैं राजा के साथ दोस्ती कैसे करूं ? मैं तो राजमहल में किसी को जानता तक नहीं ?"

पत्नी झिड़कते हुए बोली - "तुम्हें दुनियादारी की बिलकुल समझ नहीं .... अरे तुम विजय को तो जानते हो ? पहले उसके ही कृपापात्र बन जाओ, फिर किसी दिन वही तुम्हें राजा का कृपापात्र भी बनवा देगा !"

दूसरे ही दिन सुजय, पत्नी के कहे अनुसार ढेर सारी मिठाइयां, फल और मेवे टोकरों में भरकर विजय के घर जा पहुंचा. इससे पहले वह कभी विजय के घर की ओर फटकता भी न था. विजय ने अपने दरवाजे पर जब सुजय को देखा तो हैरत से कहा - "अरे भाई, आप आज मेरे घर कैसे और इन टोकरों में क्या है ?"

सुजय आत्मीयता भरे स्वर में बोला - "क्या बताऊँ विजय भाई, बहुत दिनों से तुम्हारे घर आना चाह रहा था मगर आज ही फुर्सत मिल पाई. ये फल और मिठाइयां बच्चों के लिए लाया हूँ, अन्दर भिजवा दीजिये."

इसके बाद सुजय तीसरे चौथे रोज विजय के घर आने-जाने लगा. जाते वक़्त वह बच्चों के लिए कुछ न कुछ ले जाना कभी न भूलता. धीरे धीरे उसके और विजय के बीच दोस्ती का अंकुर पनपने लगा. उसे पूरी उम्मीद हो चली थी कि एक दिन वह विजय के माध्यम से राजमहल तक भी जरूर पहुँच जाएगा.

एक दिन सुजय अपनी दुकान पर बैठा था तभी एक राजकर्मचारी ने उसके हाथ में एक पत्र आ थमाया. यह पत्र राज्य के आयकर अधिकारी की ओर से था जिसमें तीन दिवस के भीतर दो सौ मुद्राएँ आयकर के रूप में जमा कराने की हिदायत दी गई थी. 

दूसरे दिन सुबह सुजय ने घर से निकलते समय पत्नी से कहा - "पहले मैं आयकर की दो सौ मुद्राएँ जमा कराने जाऊँगा उसके बाद दुकान पर जाऊँगा."

पत्नी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा - "आप अब भी राजा को आयकर देंगे ?"

सुजय ने पूछा - "तुम कहना क्या चाहती हो, साफ़ साफ़ कहो ?"

पत्नी बोली - "अरे सीधी सी तो बात है ... तुम विजय के दोस्त हो ... विजय राजा का दोस्त है .... तो एक तरह से तुम भी राजा के दोस्त ही हुए न ! अब राजा के दोस्त भी कर भरने लगे तो फिर तो हो चुका ? और रही आयकर अधिकारी की बात, तो उसके यहाँ से कोई राजकर्मचारी दुबारा आये तो तुम केवल विजय से कह देना, विजय उसे ऐसा हड़का देगा कि उसकी दुबारा तुमसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं होगी ! आखिर राजा का कृपापात्र होना कोई मामूली बात है क्या ?"

मैं कितना भाग्यशाली हूँ जो मुझे ऐसी बुद्धिमती पत्नी मिली, सुजय ने सोचा. वह कर जमा करने का इरादा त्याग सीधा अपनी दुकान पर आ बैठा. 

तीन दिन बीत गए. चौथे दिन सुबह - सुबह एक राजकर्मचारी सुजय की दुकान पर आया और बोला - "मेरे साथ चलो, तुम्हें राजमहल में बुलाया गया है."

सुजय मन ही मन खुश हुआ, लगता है मुझे भी राजा का कृपापात्र बनने का अवसर मिलने वाला है. 

राजमहल में राजा साहब के सामने उसे पेश किया गया. राजा साहब बोले - "जानते हो मैंने तुम्हें यहाँ क्यों बुलाया है ? इस सारे महल में झाड़ू लगाने के लिए..... कल तक विजय नाम का एक व्यापारी यह काम करता रहा. आज से तुम करोगे.... पूरे एक महीने तक ! आयकर जमा कराने से बचने वाले तुम जैसे व्यापारियों के लिए मैंने यही सजा तय की है."

और उस दिन से सुजय बाबू की दुकान पर रोज सुबह एक राजकर्मचारी बुलाने आ जाता, सुजय बाबू उसके साथ जाते और राजमहल में झाड़ू लगाकर वापस अपनी दुकान पर आ बैठते. 




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