बरगद की गवाही - एक लोक कथा | Baragad ki gawahi - Ek Lok Katha

किसी गाँव में हीरालाल नाम का एक आदमी रहता था. एक साल ओलावृष्टि होने के कारण उसकी फसल बर्बाद हो गई और वह धनाभाव से जूझने लगा. अगले साल खेती करने के लिए उसे पैसों की आवश्यकता थी किन्तु उसके पास कोई इंतजाम नहीं था. 

एक दिन घर में मन नहीं लग रहा था इसलिए दोपहर के वक़्त वह गाँव से बाहर जंगल में एक पेड़ के नीचे चिंतित मुद्रा में बैठा हुआ था तभी उसी के गाँव का एक सेठ उधर से गुजरा. सेठ काफी धनी व्यापारी था किन्तु साथ ही नेक और नरमदिल इंसान था. उसने हीरालाल को उदास बैठे देखा तो पूछ लिया - "क्यों भाई हीरालाल, कुछ परेशान मालूम होते हो, क्या बात है ?"

सेठ की सहानुभूति भरी वाणी सुनकर हीरालाल की आँखों से आंसू निकल आये. बोला - "क्या बताऊँ सेठजी, पिछले साल फसल खराब हो गई थी. अब इस साल खेती करने के लिए पैसों का कोई इंतजाम नहीं है. अगर खेत नहीं बोये तो मेरे परिवार के भूखों मरने की नौबत आ जायेगी. बस इसी चिंता में बैठा हुआ हूँ कि खेती लायक पैसों का इंतजाम कहाँ से करूँ ? किसके आगे हाथ फैलाऊँ ?"

सेठ को हीरालाल पर दया आ गई. उसने पूछा - "कितने पैसों में काम चल जाएगा तुम्हारा ?"

हीरालाल बोला - "बस एक हजार रुपये मिल जाते तो काम हो जाता."

सेठ ने जेब से एक हजार रुपये निकाले और हीरालाल के हाथ में देते हुए बोला, "ये लो हजार रुपये और अपने खेत समय पर बोओ. तीन चार महीने में फसल आ जायेगी तब मेरे रुपये वापस कर देना."

हीरालाल रुपये हाथ लेते हुए हाथ जोड़कर बोला - "आपकी बड़ी मेहरबानी सेठ जी .... मैं फसल आते ही सबसे पहले आपके रुपये ब्याज सहित चुकाऊँगा. आप कहें तो कल आपकी दूकान पर इन रुपयों की लिखापढ़ी के लिए हाजिर हो जाऊँ ?"

सेठ सचमुच भला आदमी था. बोला - "तुम कौनसा साल दो साल के लिए ले रहे हो. तीन चार महीने में फसल आ जायेगी तब चुका ही दोगे. इसके लिए क्या लिखापढ़ी करना ! वैसे भी मैं अभी शहर जा रहा हूँ, दो हफ्ते बाद लौटूंगा. लिखापढ़ी करनी भी होगी तो अब मेरे लौटने के बाद ही हो पाएगी इसलिए तुम लिखापढ़ी की चिंता मत करो अपना काम चलाओ."

इतना कहकर सेठ अपने रास्ते चला गया और हीरालाल रुपये लेकर ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर की ओर चला आया. 

उस साल हीरालाल की फसल बहुत अच्छी हुई. उसके पास खूब पैसा आया किन्तु वह अपना क़र्ज़ चुकाने सेठ के पास नहीं पहुंचा. उसकी नीयत में बेईमानी आ गई थी. आखिर एक दिन सेठ ही उसके घर अपने रुपये मांगने आया. 

सेठ के रुपये मांगने पर हीरालाल बिगड़ कर बोला - "कैसी बात करते हो सेठ जी ? मैंने आपसे कब रुपये लिए ? आप खामखाँ मेरे ऊपर क़र्ज़ थोपने आ गए है."

सेठ समझ गया कि हीरालाल की नीयत में खोट आ गई है. वह सीधे सीधे रुपये न देगा. इसलिए वह न्याय के लिए गाँव के मुखिया के पास पहुंचा. 

मुखिया ने हीरालाल और सेठ, दोनों को पंचायत में बुलाया. मुखिया ने हीरालाल से कहा - "क्यों भाई, सेठजी के रुपये क्यों नहीं दे रहे हो ?"

हीरालाल ढिठाई से बोला - "कौनसे रुपये ? मैंने इनसे कोई कर्जा लिया ही नहीं. अगर इनके पास कोई गवाह, सबूत, लिखापढ़ी हो तो ये सबके सामने दिखाएँ, मैं मान लूँगा."

सेठ बोला - "गवाह सबूत या लिखापढ़ी इसलिए नहीं है क्योंकि मैंने इन्हें जहां रुपये दिए वहाँ मेरी दुकान नहीं बल्कि जंगल था. मैं रास्ते से शहर जा रहा था और ये बहुत दुखी बैठे हुए थे इसलिए मैंने दयावश इन्हें तुरंत रुपये दे दिए. इन्होने फसल आने पर लौटाने का वादा किया था परन्तु ये लौटाने नहीं आये."

हीरालाल व्यंगपूर्वक बोला - "वाह ! यह भी खूब रही ! जंगल में भी कोई रुपये बांटता है क्या ? जाओ, जाओ, किसी और को बेवकूफ बनाओ सेठजी."

मुखिया अक्लमंद आदमी था. वह सेठ को अच्छी तरह जानता था कि वह झूठ न बोलेगा. इसलिए उसने सच्चाई पता लगाने की एक युक्ति सोची. वह सेठ से बोला - "सेठजी, यदि आपको अपने रुपये चाहिए तो कोई गवाह सबूत तो लाना होगा. शान्ति से सोचकर बताइये कि जब आपने रुपये दिए तब वहाँ कोई और भी था या नहीं ?"

सेठ मायूस होकर बोला - "मेरे और हीरालाल के अलावा वहाँ और कोई मौजूद नहीं था. ये रास्ते के किनारे एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, मैंने वहीं इनको रुपये दिए."

मुखिया तुरंत बोला - "बरगद के नीचे बैठे थे ? इसका मतलब तुम्हारे और हीरालाल के अलावा बरगद का पेड़ भी वहाँ मौजूद था. इस मामले में हम बरगद से गवाही लेंगे. सेठजी, आप फ़ौरन जाइए और बरगद के पेड़ को यहाँ गवाही के लिए बुलाकर लाइए."

मुखिया की बात सुनकर सेठ का चेहरा उतर गया. भला बरगद गवाही के लिए कैसे आएगा ? अन्य मौजूद लोग भी मुखिया की बात सुनकर आश्चर्य में पड़ गए. वहीं हीरालाल का चेहरा खिल उठा. 

सेठ अब तक पसोपेश में पड़ा वहीं खड़ा था. उसे खड़े देखकर मुखिया ने कड़ककर कहा - "सेठजी, आप अभी तक गए नहीं ? जल्दी से बरगद के पास जाइए और उसे कहिये कि मैंने उसे गवाही के लिए पंचायत में बुलाया है."

सेठ बेचारा बुझे मन से बरगद के पेड़ को बुलाने जंगल की ओर चल दिया. हीरालाल मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि अब तो उसे सेठ को रुपये देने नहीं पड़ेंगे. फैसला उसी के हक़ में होगा क्योंकि बरगद तो गवाही देने के लिए आने से रहा. 

सेठ को गए हुए जब काफी देर हो गई तो मुखिया ने हीरालाल से कहा - "हीरालाल, क्या लगता है, सेठ उस बरगद के पेड़ तक अभी पहुंचा होगा या नहीं ?"

हीरालाल तुरंत बोला - "अभी कहाँ से पहुँच गया होगा ? यहाँ से उस पेड़ की दो कोस से कम दूरी न होगी !"

मुखिया ने अपने बगल में रखा डंडा उठाया और चार डंडे हीरालाल की पीठ पर जड़ते हुए बोला, "तुझे ये तो याद है कि वह पेड़ दो कोस की दूरी पर है पर ये याद नहीं है कि उस पेड़ के नीचे सेठ ने तुझे रुपये दिए ?"

डंडे पड़ते ही हीरालाल को अपनी गलती समझ में आ गई. सारी पंचायत मुखिया की बुद्धिमानी पर चकित रह गई. उसने कितनी सफाई से हीरालाल से सच उगलवा लिया था. हीरालाल शर्म से मानो गड़ सा गया. उसने चुपचाप हजार रुपये ब्याज सहित लाकर पंचायत के सामने रख दिए और सिर झुकाकर बैठ गया. 

मुखिया ने सेठ के रुपये उसके घर भिजवा दिए और हीरालाल को आगे से किसी के साथ बेईमानी न करने की चेतावनी देकर छोड़ दिया.




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