मुनीम की बुद्धिमानी - एक लोक कथा | Muneem ki Buddhimani - Ek Lok Katha

किसी जमाने में गुजरात में एक सेठजी रहा करते थे। उनका काफी बड़ा व्यापार था और अपने नगर में उन्हें नगरसेठ का दर्जा प्राप्त था। उनकी बेटी जब विवाहयोग्य हुई तो एक अच्छा लड़का देखकर उन्होने अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया। दो महीने बाद विवाह की तारीख तय हुई। 

सेठजी विवाह की तैयारियों में लग गए। गहनो और कपड़ों की ख़रीदारी वैवाहिक तैयारियों का एक महत्वपूर्ण भाग था, किन्तु सेठ जी जिस नगर में रहते थे वहाँ इन चीजों की अच्छी दुकानें नहीं थीं। इसलिए सेठजी ने तय किया कि गहने और कपड़े दिल्ली से मंगाए जाएँ। 

उन दिनों आज की तरह आवागमन के तेज साधन न थे अतः एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने में कई कई दिन लग जाते थे। सेठजी ने सोचा कि यदि वे खुद ख़रीदारी करने दिल्ली गए तो काफी वक़्त लग जाएगा और विवाह की तैयारियां प्रभावित होंगी। अतः दिल्ली जाकर गहने कपड़े खरीदकर लाने का काम सेठ जी ने अपने बड़े मुनीम को सौंपा।

बड़ा मुनीम काफी अनुभवी और समझदार व्यक्ति था इसीलिए सेठ ने इतनी महत्वपूर्ण ख़रीदारी के लिए उसे चुना था। किन्तु फिर भी, था तो वह सेठ का नौकर ही, इसलिए जिस दिन उसे जाना था, उस दिन सेठ उसे बैठाकर समझाने लगे। 

सेठ जी ने मुनीम को समझाया कि राह में कहाँ बसेरा करना है, कहाँ नहीं करना है। किसी चोर या ठग से सामना हो जाये तो क्या करना है। राजधानी पहुँच कर किस तरह ईमानदार और सच्चे दुकानदार की पहचान करनी है और ठग व्यापारियों से बचना है आदि आदि। 

सेठ जी मुनीम को काफी देर तक समझाते ही रहे। उन्होने समझाइशों की ऐसी झड़ी लगाई कि मुनीम ऊब गया। आखिर वह मुस्कुराकर नम्रता से उनकी बात काटते हुये बोला - "सेठ जी, परदेस आखिर परदेस होता है। आपकी ये सारी सलाहें वहाँ मेरे काम आ ही जाएंगी, यह कोई आवश्यक नहीं है। वहाँ मुझे परिस्थिति के अनुसार अपनी बुद्धि से ही काम लेना अधिक उचित होगा।" इतना कहकर उसने सेठजी का अभिवादन किया और अपने ऊँट पर बैठकर दिल्ली की ओर रवाना हो गया। 

मुनीम तो चला गया, किन्तु सेठजी के अहं को मुनीम के इस व्यवहार से बड़ी ठेस पहुंची। वे संसार में अपने आपको सबसे बुद्धिमान समझते थे। उनको लगा कि उनकी बात काटते हुये चले जाकर उनके कर्मचारी ने उनकी हँसी उड़ाई है। उनकी सूझबूझ का उपहास किया है। उन्होने अपने आपको अत्यंत अपमानित महसूस किया। वे मुनीम को सबक सिखाने पर विचार करने लगे। 

उन्होने एक खतरनाक योजना बनाई, जिसके तहत उन्होने नाई को बुलवाकर अपने सिर के बाल मुंडवा लिए। उन बालों को उन्होने एक रूमाल में संभाल कर रख लिया और घर चले आए। 

घर आकर वे बाल अपनी पत्नी को देते हुये उन्होने कहा कि इन बालों को एक सुंदर सी सोने की जरी वाले कपड़े में लपेट कर ढीली से पोटली बना दे और उसके चारों ओर गोटा लगाकर सलमे सितारे टाँक दे, ताकि वह पोटली किसी उपहार जैसी लगे। 

पत्नी ने सेठजी के कहे अनुसार वैसा ही किया और एक सुंदर सी पोटली बना दी। सेठजी उस पोटली को लेकर वापस दुकान पर पहुंचे और छोटे मुनीम को बुलाया। 

छोटा मुनीम बेईमान और चापलूस किस्म का आदमी था तथा बड़े मुनीम से मन ही मन जलता था। जब सेठजी ने उसे बड़े मुनीम के धृष्टतापूर्ण कृत्य के बारे में बताया और कहा कि वे बड़े मुनीम को दंड देना चाहते हैं तो छोटा मुनीम बहुत खुश हुआ। वह तुरंत सेठजी की आज्ञापालन करने के लिए तत्पर हो गया। 

सेठजी ने बालों वाली वह पोटली छोटे मुनीम को देते हुये कहा कि इस पोटली को लेकर वह अगले ही दिन दिल्ली के लिए रवाना हो जाये। दिल्ली पहुँचकर बड़े मुनीम से मिले और उन्हें कहे कि यह पोटली वह अपने हाथों से दिल्ली के बादशाह को हमारी ओर से भेंट दे। 

छोटे मुनीम ने सेठजी को आज्ञापालन का आश्वासन दिया और अगले ही दिन प्रसन्नचित्त होकर दिल्ली के लिए रवाना हो गया। 

बड़े मुनीम जी दिल्ली पहुँच गए और वहाँ जाकर जौहरियों और व्यापारियों से मिलने लगे। सोने, चांदी, हीरे मोती के जवाहरात और रेशमी, ऊनी, सूती वस्त्रों के भावताव करने लगे। उनका विचार था कि एक सप्ताह तक रुककर दिल्ली के विभिन्न बाज़ारों के भावताव देखकर सामान खरीद लिया जाये और वापस चला जाये। किन्तु उन्हें पहुंचे दो दिन भी नहीं हुये थे कि पीछे से छोटे मुनीम जी ने पहुँचकर उनको सेठजी का संदेश सुनाया और उपहार वाली पोटली सौंप दी। 

सेठजी ने दिल्ली के बादशाह के लिए उपहार भेजा है और उसे देने का सौभाग्य उसे मिल रहा है, यह जानकर बड़े मुनीम को बहुत प्रसन्नता हुई। उसने पोटली के साथ - साथ बाजार से कुछ और मोतीमाणिक चुने और उन्हें पोटली सहित एक थाल में सजाकर बादशाह के दरबार में भेंट देने के लिए पहुँच गया। 

बादशाह ने गुजरात के एक नगरसेठ द्वारा भेजी गयी भेंट स्वीकार की और गुजरात के राजा और सेठजी की कुशलक्षेम पूछी। मुनीम ने विनम्रतापूर्वक बादशाह से बात की और फिर वहीं दरबार में बैठ गया। 

कुछ देर बाद सेठजी द्वारा भेजी गई पोटली खोली गई तो सूखे बाल उसमें से निकल कर उड़ने लगे। पूरा दरबार दंग रह गया। मुनीम ने जब पोटली में से बाल उड़ते हुये देखे तो वह अपने सेठ की करतूत समझ गया। 

बादशाह आगबबूला होकर बोला - "सेठ की यह हिमाकत कि वह दिल्ली के तख्त की बेइज्जती करे। इस मुनीम की गर्दन तुरंत उड़ा दी जाये।"

किन्तु मुनीम इस सबसे बिलकुल भी विचलित न होकर अपनी जगह से उठा, और एक बाल उठा कर माथे से लगा, अपने अंगरखे के पल्ले में बांधता हुआ बोला - "हे शहंशाह, मेरी आपसे एक आखिरी विनती है। मुझे मरने के बाद इन बालों के साथ जलाया जाय ताकि मैं सीधे स्वर्ग जा सकूँ।"

यह कहकर वह इधर उधर उड़ रहे अन्य बालों को उठा उठाकर अपने अंगरखे के पल्ले में बांधने लगा। वजीर ने जब यह देखा तो बादशाह के कान में जाकर कहा कि इन बालों में जरूर कोई रहस्य है। उसे जानने के पहले इसकी गर्दन उड़ाने का आदेश मत दीजिये। बादशाह मान गया। 

बादशाह मुनीम से बोला - "तुम साफ साफ कहो क्या कहना चाहते हो ताकि हम सही इंसाफ कर सकें।"

मुनीम बड़े प्रेमपूर्वक बालों को सहेजता हुआ गदगद स्वर में बोला - "जहाँपनाह, आपको यह भेंट मज़ाक लग सकती है, लेकिन गुजरात की जनता के दिल में आपके लिए जो इज्जत है वह मेरे सेठजी जानते हैं। इन बालों के आगे बड़े-बड़े बादशाहों के खजाने भी बेकार हैं।"

मुनीम की बातें दरबारियों के पल्ले न पड़ीं। बादशाह भी हैरान होकर मुनीम की ओर देख रहा था। उधर मुनीम पागलों की भांति बार - बार उन बालों को माथे से लगाकर उस पोटली को चूम रहा था। 

वजीर समझ गया कि ये बाल कोई साधारण बाल नहीं है। वह अपनी जगह से उठकर मुनीम के पास आया और उसे गले से लगाकर बोला, "मुनीम जी, बादशाह सलामत ने तुमको माफ कर दिया है। अब तुम हुज़ूर को इन बालों के संबंध में स्पष्ट रूप से बताओ।"

मुनीम बादशाह को संबोधित करते हुये कहने लगा, "जहाँपनाह, हमारे सेठजी पिछले साल गिरनार की यात्रा पर गए थे। वहाँ उन्होने साधु-संतों की बड़ी सेवा की। एक सिद्ध संत ने खुश होकर अपनी दाढ़ी के बाल सेठजी को देकर कहा कि इन्हें सदा अपनी तिजोरी में रखना। इससे वह कभी खाली नहीं होगी।"

बादशाह सहित पूरा दरबार अवाक होकर मुनीम की बात सुन रहा था। मुनीम आगे बोला - "हुज़ूर, जब मैं यहाँ आने लगा तो सेठजी बोले, मुनीम जी, हमारे शहँशाह सारी दुनिया के मालिक हैं, यह तोहफा उनके खजाने में रहना चाहिए। उनका खजाना भरा रहेगा तो हम ही क्या, पूरी अवाम खुश रहेगी। इसीलिए ये पवित्र बाल मैंने आपको भेंट किए हैं।"

बादशाह, वजीर सहित पूरा दरबार मुनीम की बातों से बहुत प्रभावित हुआ। मुनीम ने बात कहीं ही कुछ ऐसे ढंग से थी कि शक-सुबह की कोई गुंजाइश नहीं थी। वजीर के कहने पर बादशाह ने खजांची को हुक्म दिया कि उन बालों को हिफाजत पूर्वक खजाने में रखा जाये। 

दरबार से विदा लेकर मुनीम जी ने बाजार जाकर आवश्यक वस्तुएं खरीदीं और रवाना होने से पहले बादशाह से विदा ली।  बादशाह ने गुजरात के राजा, सेठ जी और उनके लिए बहुमूल्य भेंटें दीं। इतना ही नहीं, उनके साथ पच्चीस शाही ऊँट और दो सौ सिपाही कर दिये ताकि वे अपने नगर तक सुरक्षित पहुँच जाएँ। 

एक महीने बाद मुनीमजी पूरा काफिला लेकर सेठजी के दरवाजे पर पहुँच गए। सेठजी उनको देखकर अचंभे में पड़ गए। उनको छोटे मुनीम ने बताया था कि बादशाह ने बड़े मुनीम की गर्दन काटने का हुक्म दिया है। वह अपने साथ बहुत सारा सामान भी ले आया था जिसमें ज़्यादातर नकली और घटिया था। 

सेठजी को समझ में नहीं आया कि उनका मुनीम बचकर कैसे आ गया। मुनीम ने सब सामान उतारकर सेठजी को दे दिया और बादशाह ने जो भेंट दी थी वह भी समर्पित कर दी। उसके बाद वह सेठजी से बोला, "सेठ जी, बहुत दिनों तक आपका नमक खाया। आज उऋण हो गया हूँ। अब आपके यहाँ नौकरी नहीं करूंगा।"

सेठजी यह जानने को बेचैन थे कि आखिर मुनीम बादशाह के हाथों बचा कैसे ? तब मुनीम ने पूरी कहानी सुनाई जिसे सुनकर सेठजी का गर्व चूर-चूर हो गया। उन्हें समझ में आ गया कि परदेश में अपनी बुद्धि के भरोसे ही मनुष्य को चलना चाहिए, न कि व्यर्थ की सीखों पर। इसके बाद सेठ ने मुनीम से नौकरी पर वापस आने के लिए बहुत मिन्नतें कीं परंतु उसने साफ इंकार कर दिया। 




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