चाचा - फ्रांसीसी कथाकार मोपासां की कहानी | Chacha - A story of French Writer Maupasan

 (सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक कथाकार गाय दी मोपासां की एक हृदयस्पर्शी कहानी)

एक ग़रीब सफ़ेद दाढ़ीवाला बूढ़ा भीख माँग रहा था। मेरे मित्र जोसेफ़ दबराँचे ने उसे पाँच रुपए का एक नोट दिया। देखकर मैं चकित हो गया! जोसेफ़ ने कहा, "इस भिखारी ने मुझे एक किस्सा याद दिला दिया; कहो तो तुम्हें सुनाऊँ! वह किस्सा मेरे चित्त में सदा घूमता रहता है। किस्सा यों है-

हम लोग हावरे शहर के रहनेवाले हैं। मेरा घराना धनी नहीं था; किन्तु किसी तरह निर्वाह हो जाता था, बस । पिता को गृहस्थी चलाने के लिए नौकरी करनी पड़ती थी। वे बहुत देर से दफ्तर से घर आते थे, और सामान्य वेतन पाते थे। मेरी दो बहनें और थीं।

माता को हम लोगों की तंग हालत के लिए बहुत कष्ट सहना पड़ता था, और वे अपने पति को सदा कोसती थीं, सदा तिरस्कार करती थीं। ऐसे अवसरों पर मेरे दुखी पिता का चेहरा ऐसा बन जाता था, कि उनके लिए मुझे भी दुख होता था। वे एक शब्द भी न बोलते, अपने माथे पर हाथ फेरते रहते, मानो काल्पनिक पसीने की बूंदें पोंछ रहे हों। मैं उनकी इस बेबसी के क्लेश का अनुभव करता था। हम लोग सब तरह से खर्च में कमी करते; किसी के घर दावत खाने नहीं जाते थे, जिससे फिर उसे दावत न देनी पड़े। किफायती कीमतों में सड़ी-गली रसद खरीदते थे। मेरी बहनें अपने कपड़े खुद बना लेती थीं, और दो-तीन आने गज़ के गोटे के भाव पर घंटों बहस करती थीं। हम लोग साधारणतया रोटी और गोश्त खाते। यह सही है कि यह भोजन स्वास्थ्यकर तथा बलवर्द्धक था, पर नित्य एक ही चीज खाते-खाते आखिर तबीयत ऊब ही जाती है।

मैं जब कभी बटन खो देता, या पायजामा फाड़ लेता, तो कड़ा तिरस्कार सुनना पड़ता था। पर प्रति रविवार को हम लोग अच्छी तरह सज-धज कर समुद्र के किनारे पर टहलने के लिए अवश्य जाते थे। मेरे पिता कोट और ऊँची टोपी पहने, त्योहार के दिन सजे हुए जहाज की तरह, अपने पूरे लिबास में, टहलने जाने के लिए तैयार होते थे। मेरी बहनें, जो पहले ही से कपड़े पहनकर तैयार रहतीं, चलने के इशारे की प्रतीक्षा करतीं। पर घर से निकलने के समय ही हम लोग पिता के कोट पर कोई अलक्षित धब्बा देख पाते, और हम लोगों को रुक जाना पड़ता। पिता कोट उतार कर टोपी और कमीज पहने प्रतीक्षा करते, और उधर माता चश्मा लगा कर हड़बड़ी मचाती हुई 'बेनजाइन' अर्क में एक कपड़े के टुकड़े को डुबो-डुबो कर कोट का वह धब्बा साफ़ करने लगतीं।

हम लोग कायदे से चलते थे। मेरी बहनें आगे-आगे एक-दूसरे का हाथ पकड़कर चलती थीं। उनकी शादी की उम्र हो चुकी थी, और हम लोग उन्हें शहर के चारों तरफ दिखाते फिरते थे। मैं माता की बाईं तरफ और पिता उनकी दाहिनी तरफ रहते। और मुझे याद है, उन रविवारों को टहलने के समय मेरे माँ-बाप कैसे आडम्बरी दीखते थे। उनके चेहरे में जाने कितनी शान रहती थी। वे गम्भीर भाव से पीठ सीधी किए, रोब के साथ चलते थे। मानो कोई बड़ा भारी ज़रूरी काम उनके रंग-ढंग पर ही निर्भर हो।

और प्रति रविवार को, दूर विदेश से लौटते हुए बड़े-बड़े जहाजों को देखकर, मेरे पिता कह उठते, 'शायद जुलियस इसी जहाज़ पर आता हो!'



चाचा जुलियस, मेरे पिता के भाई, किसी समय हमारे वंश के कलंक समझे जाते थे। पर अब वे हमारे खानदान की एकमात्र आशा, भरोसा थे। उनके विषय में मैं इतना सुन चुका था कि मुझे लगता था कि पहली दृष्टि में ही मैं उनको पहचान जाऊँगा। उनके अमेरिका चले जाने तक का हाल मैं ब्यौरेवार जानता था, यद्यपि उनके उस समय तक के जीवन की चर्चा दबी ज़बान में ही होती थी।

वे बिगड़े हुए थे, आवारा थे, यानी उन्होंने धन उड़ा दिया था। गरीब घराने में यह सबसे बड़ा अपराध है। धनियों के घर में अगर कोई रुपए बहा कर मजा करता है, तो लोगों की राय में वह केवल अपना ही सत्यानाश करता है, पर गरीबों के घर में अगर कोई युवक बाप-दादा का संचित धन उड़ाता है, तो नालायक, दुर्जन और निकम्मा समझा जाता है।

यद्यपि बात एक ही है, पर यह ठीक है, क्योंकि परिणाम ही काम के गुरुत्व का फैसला करता है।

संक्षेप में चाचा जुलियस ने अपने हिस्से की पाई-पाई बर्बाद करके मेरे पिता का हिस्सा भी नहीं के बराबर कर दिया था, और अन्त में वे एक मालवाहक-जहाज पर बैठकर न्यूयार्क चले गए थे।
वहाँ पहुँचकर जुलियस चाचा ने एक दुकान खोली, और घर के लिए चिट्ठी भेजी कि वे अब कुछ रुपए कमाने लगे हैं, और उम्मीद करते हैं कि जल्दी ही उनकी हालत ऐसी हो जाएगी कि उन्होने मेरे पिता को जो नुक़सान पहुँचाया है, वह सब भर सकेंगे। उस चिट्ठी ने हमारे घर में हलचल मचा दी। निकम्मा, आवारा जुलियस अब सहसा लायक हो गया। परमात्मा ने अब उसे अच्छी बुद्धि दी है। दबराँचे खानदान में कभी कोई बेईमान नहीं हुआ। वह भी कैसे हो सकता था!

फिर कुछ दिनों के बाद एक जहाज के कप्तान ने बतलाया कि उनकी दुकान खूब बढ़ी है-माल भरा पड़ा है और अच्छी चल रही है।

दूसरी चिट्ठी दो साल के बाद आई। उसमें लिखा था-"प्रिय भाई फिलिप, मेरे स्वास्थ्य के बारे में चिन्ता न करो, मेरी तबीयत ठीक रहती है। धन्धा भी अच्छा चल रहा है। मैं कल दक्षिणी अमेरिका की लम्बी यात्रा पर जा रहा हूँ। शायद सालों तक तुम्हें कोई खबर नहीं भेज सकूँगा। अगर मैं तुम्हें पत्र न लिखूँ तो कोई चिन्ता न करना। मैं तब तक हावरे शहर में न लौटूंगा, जब तक मैं धनवान न हो जाऊँ। मुझे आशा है कि इसमें देर नहीं है; और हम सब सुखपूर्वक एक साथ रहेंगे।"

यह चिट्ठी हमारे खानदान की खुश-खबरी हो गई। इसे सब अवसरों पर पढ़ा जाता और सबको दिखाया जाता।
दस साल से जुलियस चाचा की कोई खबर नहीं मिली थी, पर जितने ही दिन बीतते जाते, मेरे पिता की आशा और दृढ़ होती जाती, और मेरी माता भी प्रायः कहती, "जब हमारा प्रिय देवर लौट आएगा, हम लोगों की हालत बदल जाएगी। उसने अब तक किसी तरह अपना जीवन सफल बनाया होगा।"
और प्रति रविवार को जब पिता बड़े और काले रंग के जहाजों को धुएँ का वृत्ताकार उद्गार करते हुए आते देखते, तो वही पुराना वाक्य दोहराते-“शायद जुलियस इसी जहाज पर आता हो!"
और हम लोग करीबन यही इन्तज़ार करते रहते कि अब उन्हें रूमाल नचाते देखेंगे और चिल्लाते सुनेंगे, “अरे फिलिप!"

उनके लौटने पर हम लोग क्या-क्या करेंगे, यह सोच रखा था, तय कर रखा था। हम लोग चाचा के रुपए से एक मकान खरीदने को ही थे और मकान देखकर पसन्द कर रखा था। वह शहर के बाहर खुली जगह पर बाग से घिरा हुआ एक छोटा-सा बँगला था! मैं बिलकुल निश्चित नहीं कह सकता कि मेरे पिता ने उस समय मकान मालिक से खरीदने की बातचीत चलाई थी या नहीं।

बड़ी बहन की उम्र उस समय अट्ठाईस साल की थी, और दूसरी की छब्बीस। उन्हें पति ही नहीं मिल रहे थे, और यह हम सबके लिए बड़ी चिन्ता की बात हो गई थी।
अन्त में एक विवाहार्थी दूसरी बहन के लिए आए। वे एक क्लर्क थे। उनकी आर्थिक हालत वैसी अच्छी नहीं थी, पर उनकी नौकरी अच्छी थी। एक शाम को उन्हें जुलियस चाचा की चिट्ठी दिखाई गई। मुझे जहाँ तक ख्याल है कि उस चिट्ठी ने ही उनकी दुविधा हटाई, और उन्हें निर्णय कर लेने को मजबूर कर दिया!
उनका प्रस्ताव बड़े आग्रह के साथ स्वीकृत हुआ, और यह तय हुआ कि विवाह के बाद पूरा परिवार 'जर्सी' टापू में सैर करने के लिए चलेगा।

एक गरीब के लिए 'जर्सी' टापू का भ्रमण आदर्श है। वह दूर नहीं है। तुम एक जहाज़ पर समुद्र पार करो, और एक परदेशी भूमि में आ जाओगे। सिर्फ़ दो घंटे का सफ़र है। कम खर्च में काफ़ी भ्रमण का आनन्द मिल सकता है।

'जर्सी' की यात्रा ने हम लोगों में आनन्द की बाढ़ ला दी। हम लोग अधीरता के साथ जाने के दिन की प्रतीक्षा करते रहे।

अन्त में हम लोग चले। मुझे सब याद है, जैसे यह सब कल की ही बातें हैं। जहाज छूटने के लिए तैयार था। मेरे पिता घबराए से, हम लोगों के तीनों बंडल जहाज पर रखे गए हैं या नहीं, यह देख रहे थे। मेरी माता भी घबराई हुई-सी मेरी अविवाहित बहन के साथ खड़ी थीं। बेचारी बड़ी बहन दूसरी के चले जाने पर खोई हुई-सी हो गई थी, और हमारे पीछे दूल्हा और दुलहिन प्रेमालाप कर रहे थे। वे लोग बार-बार मुझे सिर घुमा कर अपनी ओर देखने के लिए मजबूर कर रहे थे।

जहाज़ ने सीटी दी। सब लोग जहाज़ पर आ गए थे। जहाज घाट छोड़कर, हरे पत्थर के टेबिल-सा चौरस समुद्र पर रवाना हो गया। आनन्द तथा सुख के आवेश में हम लोग खड़े-खड़े पीछे हटते हुए तट की ओर देखते रहे।

मेरे पिता अपना वही पुराना कोट पहन कर खड़े थे, जिसके सब धब्बे उसी दिन सबेरे साफ़ किए गए थे, और उनके चारों तरफ 'बेनजाइन' की गन्ध मँडरा रही थी, जो हम लोगों को त्योहार के दिन और रविवारों की याद दिलाती थी।

मेरे पिता की दृष्टि सहसा दो सुसज्जित स्त्रियों पर पड़ी, जिन्हें दो सज्जन पकाई हुई घोंघा मछलियाँ पेश कर रहे थे। एक बूढ़ा गन्दा खलासी छुरी से खोल काट-काट कर उन सज्जनों को दे रहा था, और वे फिर उन स्त्रियों को दे रहे थे। सुन्दर रूमाल पर खोल को रखकर, अपने होंठों को बढ़ा कर, जिससे कपड़े खराब न हों, वे बड़े मनोहर ढंग से खा रही थीं, और मुँह को ऊपर करके उसका रस पीकर समुद्र में खोल को फेंक रही थीं।

मेरे पिता को चलते जहाज़ पर घोंघा खाने की सुन्दरता ने आकर्षित कर लिया। वे इसे सभ्यता और शिष्टाचार समझे और माता और बहनों के पास जाकर उन्होंने पूछा, "कुछ घोंघा मछलियाँ खाओगी?"

माता ने खर्च के ख्याल से आगा-पीछा किया; पर मेरी बहनें फ़ौरन तैयार हो गई। माता कुछ परेशान-सी होने के भाव से बोली, “मैं नहीं खाऊँगी। बच्चे दो-एक खा सकते हैं, पर ज्यादा नहीं; नहीं तो तुम उनकी तबीयत खराब करोगे!"
फिर मेरी ओर देखती हुई वे बोली, “जोसेफ़ नहीं खाएगा। बालकों को भरपूर खिलाना ठीक नहीं।"

यह अन्तर का अन्याय सोच कर मैं माता के पास बैठा रहा। मेरी आँखों ने पिता का अनुसरण किया। वे दामाद और कन्याओं को तकल्लुफ़ से, चिथड़ा पहने हुए बूढ़े मछलीवाले की ओर ले जा रहे थे। वे दोनों महिलाएँ अब उठकर चली गई थीं, और मेरे पिता बहनों को बतला रहे थे कि कैसे रस से कपड़े खराब न करके घोंघा निगल जाना चाहिए। फिर वे एक घोंघा उठा कर उसे खाकर, उनको तालीम देने को भी तैयार हो गए।

उन्होंने उन महिलाओं का अनुकरण किया था; पर उसी क्षण सारा रस उनके कोट पर छलक पड़ा, और मैंने माता को गिड़गिड़ाते सुना, "वह चुप क्यों नहीं रह सकते!"

पर पिता सहसा बहुत घबराए हुए से दीख पड़े, मछलीवाले को घेरकर खड़े हुए अपने परिवार की ओर एकटक देखते हुए वे कई कदम पीछे हट गए और एकाएक हम लोगों के पास चले आए। वे बहुत पीले दीख रहे थे, और उनकी आँखें अजीब-सी हो गई थीं। उन्होंने फुसफुसाते हुये माता से कहा, "बड़ा आश्चर्य है, वह मछली वाला बिलकुल जुलियस की शक्ल का दीख रहा है!"

मेरी माता ने चकित होकर पछा, "कौन जुलियस?"
पिताजी ने कहा, “अरे, मेरा भाई! अगर मैं नहीं जानता होता कि वह अमेरिका में काम कर रहा है, तो मैं यकीन करता कि यह वही है।"
माता ने हकलाकर कहा, "तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। जब तुम जानते ही हो कि यह वह नहीं है, तब क्यों ऐसी बेवकूफ़ी की बातें कर रहे हो?"
"जाओ क्लेरीसा, तुम अपनी आँखों से देख आओ! तुम अपनी आँखों से देखकर निश्चय तो कर लो, नहीं तो मुझे चैन नहीं मिलेगा।"

माता उठी और अपनी कन्याओं के पास गई। मैंने भी उस आदमी की ओर देखा। वह एक गन्दा, झुर्रीदार चेहरे वाला बूढ़ा था। वह अपने काम से आँखें नहीं उठा रहा था।
माता लौट आई। मैंने देखा, वे काँप रही थीं। जल्दी-जल्दी बोली, "मेरे ख्याल में यह जुलियस ही है। जहाज के कप्तान के पास जाकर पता लगाओ। पर खैरियत चाहते हो, तो होशियारी से काम करना। अब कहीं भिखमंगे को साथ लेकर उतरना न पड़े!"

पिता चले। मैं भी उनके साथ-साथ चला। मेरे हृदय में एक विचित्र करुणा भर आई।
कप्तान-एक लम्बा, दुबला, सफ़ेद मूंछों वाला बूढ़ा-पुल के पास चहलकदमी कर रहा था। वह चारों तरफ ऐसी रोबीली नज़र डाल रहा था, मानो वह हिन्दुस्तान के डाक-जहाज का कप्तान हो।

मेरे पिता उससे कायदे से मिले और उसकी सराहना करते हए, समद्री-जीवन के बारे में उससे पूछा।

'जर्सी' टापू कैसी जगह है? वहाँ की जनसंख्या कितनी है? वहाँ क्या-क्या चीजें पैदा होती हैं? वहाँ के लोगों का धन्धा क्या है, किस तरह जीवन काटते हैं? जमीन कैसी है? आदि-आदि।
पिता ने शायद अमेरिका के बारे में कोई बात ही नहीं की।

फिर वे, हम लोग जिस जहाज़ पर थे, उसी जहाज़ के विषय में बातें करते रहे; फिर खलासियों के बारे में। अन्त में मेरे पिता ने लहराते स्वर में पूछा, "आपके जहाज में घोंघा मछली बेचनेवाला एक अजीब बूढ़ा है। क्या आप उसके बारे में कुछ जानते हैं?"

अब वह कप्तान इस बातचीत से ऊबने लगा था। उसने संक्षेप में कहा-"वह एक फ्रेंच घुमक्कड़ है। पिछले साल अमेरिका में उससे भेंट हुई थी, और मैं उसे स्वदेश लौटा लाया था। हावरा शहर में उसके रिश्तेदार हैं; पर वह उनके पास जाना नहीं चाहता, क्योंकि वह उनका कर्जदार है। उसका नाम है जुलियस...जुलियस दरमाँचे या दरबाँचे, ऐसा ही कुछ है। मैंने सुना है, वह किसी समय वहाँ एक धनी आदमी था; पर अब उसकी हालत कैसी है, यह तो आप देख ही रहे हैं!"

पिता का चेहरा प्रति क्षण पीला पड़ता जा रहा था; गले की नसों को कस कर घबराई हुई दृष्टि से देखते हुए उन्होंने हकला कर कहा, "अच्छा...अच्छा...मुझे कुछ भी आश्चर्य नहीं हो रहा है...धन्यवाद, कप्तान साहब!"

यह कहकर वे आगे बढ़ गए। कप्तान चकित होकर उनके विचित्र हाव-भाव देखता रहा।
वे बहुत विचलित होकर माता के पास लौट आए। माँ बोली, “बैठ जाओ, तुम्हारा भाव देखकर लोग क्या सोचेंगे?"

कुर्सी पर धम्म से बैठकर उन्होंने कहा, "हाँ, वह जुलियस ही है। इसमें कोई शक ही नहीं।" फिर उन्होंने माता से पूछा, “अब हम लोगों को क्या करना चाहिए?"

माता ने फ़ौरन जवाब दिया, "बच्चों को हटा लेना चाहिए। जोसेफ़ तो सब जान गया है। वही जाकर उन लोगों को ले आवे। हम लोगों को बहुत होशियार हो जाना चाहिए, जिससे दामाद को कोई शक न हो।"

निराशा तथा दुख से पिता शिथिल हो गए। उन्होंने एक ठंडी साँस लेकर अस्फुट स्वर में कहा, “कैसी आफ़त आ गई!"

झट उनकी ओर घूम कर माता ने क्रोध से कहा, "मुझे हमेशा शक रहा कि उस बेईमान बदमाश से कोई भलाई नहीं होगी और आखिर में आकर हम लोगों की छाती पर बैठकर चैन से गुजर करेगा। तुम आशा लगाए बैठे रहे कि भाई आकर राजगद्दी पर बैठाएगा! हुँ... जैसे किसी 'दबराँचे' पर कभी आसरा लगाया जा सकता है...."
सदा की तरह, मेरे पिता अपने माथे पर हाथ फेरते हुए चुपचाप पत्नी का तिरस्कार सुनते रहे।

वे फिर बोलीं, “जोसेफ़ को कुछ पैसे दो, वह जाकर मछली की कीमत दे आवे। अगर वह गुदड़िया हम लोगों को पहचान ले, तो सब चौपट ही समझो! जहाज पर एक अच्छी खासी खलबली मचेगी। चलो, हम लोग एक किनारे होकर चलें, होशियार रहना, वह हम लोगों के पास न आए!"
वह उठ पड़ीं। मुझे पाँच रुपए का नोट देकर वे दोनों चले गए।

मेरी बहनें चकित होकर पिता के लिए प्रतीक्षा कर रही थीं। मैंने कहा कि माता के सिर में चक्कर आ रहा है।
"आपको कितना देना है, जनाब!"-मैंने मछली वाले से पूछा। मैं उनसे 'चाचा' कहना चाहता था। उन्होंने कहा, "एक रुपया आठ आने।" मैंने उनको पाँच का नोट दिया, और उन्होंने बाक़ी दाम लौटा दिए।

मैंने उनके हाथों की तरफ देखा-एक गरीब खलासी की तरह सूखे, गिरहदार थे। उनका सिकुड़ा, दुखी, करुणा तथा निराशापूर्ण चेहरा देखते हुए मैंने मन-ही-मन कहा, "यही मेरा चाचा है! मेरे बाप का सगा भाई है, मेरा चाचा है!"

मैंने उनको आठ आने इनाम दिए। उन्होंने मुझको धन्यवाद देकर "परमात्मा आपका भला करे!" इस ढंग से कहा, जैसे भिखमंगा भीख पाने पर कहता है। मुझे लगा, वे जरूर वहाँ भीख माँगते रहे होंगे।
बहनें मेरी उदारता देखकर चकित होकर मेरे मुंह की ओर देखती रहीं।

जब मैंने तीन रुपए पिता को वापस दिए, तो माता चकित होकर बोलीं, "क्या दो रुपए दाम दिए? यह नामुमकिन है।"
मैंने कहा, "मैंने उनको आठ आने इनाम दिए हैं।"

माता चौंककर मेरी ओर पूरी दृष्टि से देखती हुई बोली, “तूने अपनी अक्ल खो दी है। जरा सोचो, तो उस चोर को आठ आने दे आया...!"

वह और भी कहने जा रही थीं, पर पिता की आँखों के इशारे से चुप हो गई। वह इतनी उत्तेजित हो गई थी, कि यह भी ध्यान नहीं रहा कि दामाद पास खड़ा है।
फिर सब कोई चुप रहे।
हम लोगों के सामने, अन्तरिक्ष पर एक हल्के नीले रंग की छाया, मानो सागर के गर्भ से उठ रही थी। यह 'जर्सी' टापू था।

अब हम लोग घाट के पास पहुँचने लगे, तो मुझे तीव्र इच्छा होने लगी कि एक बार जुलियस चाचा से मिलूं, उनके पास जाऊँ और उनसे सान्त्वना-भरी, स्नेहपूर्ण कुछ बातें करूँ। पर और कोई घोंघा मछली का खरीदार न रहने के कारण वे अदृश्य हो गए थे, नीचे चले गए थे, शायद किसी गन्दे कोने में, जहाँ वे बेचारे रहते थे।

और हम लोग, उनसे भेंट न हो, इस डर से एक दूसरे जहाज पर घर लौट आए। मेरी माता घबराहट से पागल-सी हो गई थीं। इसके बाद मैंने चाचा को कभी नहीं देखा!...
इसीलिए तुम कभी-कभी देखते हो कि मैं भिखमंगों को पाँच का नोट देता हूँ।





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