राजा साहब की कुतिया - आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी | Raja Saahab Ki Kutiya - A story by Acharya Chatursen Shastri

(बीसवीं सदी के सुप्रसिद्ध हिन्दी कथालेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री की एक लोकप्रिय कहानी)

जी हाँ, हिंदुस्तान की आजादी और मेरी बरबादी एक ही साथ हुई। संयोग की बात है - बस, एक जरा सी चूक ने तक़दीर का बेड़ा गर्क कर दिया। अब आप सुनने पर आमादा हैं तो पूरा किस्सा ही सुन लीजिये। 

आप तो जानते ही हैं कि एल-एल॰बी॰ पास करके पूरे तीन साल अदालत की धूल फाँकी। किसी भी बात की कोर-कसर नहीं रक्खी। चालाक से चालाक मुंशी रक्खे, बीवी के सारे जेवर बेच-बेचकर मोटी-मोटी कानून की किताबें खरीदीं। बढ़िया से बढ़िया सूट सिलवाये। हमेशा बड़े वकीलों का ठाठ रक्खा, पर कमबख्त वकालत को न चलना था - न चली। जी हाँ, कमाल ही हो गया। ठीक वक़्त पर कचहरी जाता। हर अदालत में चक्कर काटता। एक-एक मुवक्किल को ताकता, भाँपता। एक-एक कानूनी पाइण्ट पर दस-दस नजीरें पेश करता, मगर बेकार। मुवक्किल थे कि दूर से ही कतरा जाते। एक से बढ़कर एक नामाकूल-घनचक्कर घिसे-घिसाए वकील तो मजे-मजे जेब गरम करके मूंछों पर ताव देते घर लौटते; और बंदा छूंछे हाथ आता। अंधी दुनिया है, भेड़ियाधसान है। बस तकदीर जिसकी सीधी उसी के पौबारह हैं। अन्त के तंत मैं वकालत को धता बता राजा साहब का प्राइवेट सेक्रेटरी हो गया। 

जी हाँ, कह तो रहा हूँ - प्राइवेट सेक्रेटरी। यकीन कीजिये। मैं आपको इम्प्लॉइमेंट-लेटर भी दिखा सकता हूँ। और अर्ज करता हूँ कि पूरे सात महीने और सत्ताईस दिन वह चैन की बंसी बजाई कि जिसका नाम ! यानि पूरी तनख्वाह, बढ़िया खाना, कोठी-बंगला। पान, सिग्रेट-सिनेमा और दोस्त-महमानों का खर्चा फोकट में। बस, जरा-सी चूक ने सब चौपट कर दिया। 

मिस जुबेदा; जी हाँ, यही नाम था उसका। राजा साहब ने मुझे जुबेदा ही की नौकरी पर बहाल किया था। बस समझ लीजिये - जुबेदा का ट्यूटर, गार्जियन, प्राइवेट सेक्रेटरी सब कुछ मैं ही था। राजा साहब उसे बेहद प्यार करते थे। जब मुझे नौकरी पर बहाल किया तो उन्होने कहा था - बर्खुरदार, जुबेदा को तुम्हारी निगरानी में सौंपकर मैं बेफिक्र हुआ। लेकिन खबरदार, तुम एक लमहे के लिए भी बेफिक्र न होना। नजर कड़ी रखना और दिल नर्म। जुबेदा कमसिन है, बेसमझ है -- मिजाज उसका नाजुक है। वह बहुत ऊंचे खानदान की औलाद है; ऐसा न हो आवारा हो जाये, या उसकी आदतें बिगड़ जाएँ। 

जुबेदा मुझसे जल्द हिलमिल गई। और मैं भी उसे प्यार करने लगा। बस, मैं अपनी नौकरी पर खुश था। और नौकरी मेरी रास पर चढ़ गई थी। राजा साहब जिद्दी और झक्की परले सिरे के थे। पुराने जमाने के खानदानी रईस थे। हमेशा कर्जे से लदे रहते, फिर भी सभी तरह की लंतरानियाँ लगी ही रहती थीं। कर्जा और लंतरानियाँ साथ-साथ न चलें तो रईस ही क्या ? उम्र साठ को पार कर गई थी। भारी-भरकम तीन मन का शरीर, बड़ा रुआबदार चेहरा, शेर की दहाड़ जैसी आवाज, लाल-लाल आँखें ! किसकी मजाल थी कि उनकी आँखों से आँखें मिलाये। बात-बात में शान। पीते भी खूब थे, मगर अकेले। किसी को साथ बैठाना शान के खिलाफ समझते थे। तीन-चार पैग चढ़ाने के बाद जब सवारी गठ जाती तब उनकी दहाड़ से कोठी दहलने लगती थी। उस समय जुबेदा को छोडकर और किसी की मजाल न थी जो उनके पास फटके। 

गर्मी की मुसीबत से बचने के लिए राजा साहब मसूरी की अपनी कोठी में मुकीम थे। बहुत भारी कोठी थी। सुबह का वक़्त था। रात बूँदाबाँदी हुई थी। ठंडी हवा चल रही थी। मौसम सुहावना था। और राजा साहब खुश थे। वे हाथ में एक पतली छड़ी लिए कमरे में टहल रहे थे। एक ख़िदमतगार पान-दान और दूसरा उगालदान लिए अगल-बगल चल रहा था। दो लठैत पीछे। क्षण-क्षण पान खाना और उगालदान में पीक डालना उनकी आदत थी। जुबेदा उनके साथ थी और उसकी अरदल में अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद मैं भी हाजिर था। जुबेदा चुहल करती, कभी आगे और कभी पीछे चक्कर खाती चली जा रही थी। राजा साहब देखकर खुश हो रहे थे। सच पूछिए तो जुबेदा को वे जान से बढ़कर चाहते थे। असल में जुबेदा एक बहुत ही उम्दा नस्ल की नाजुक विलायती कुतिया थी और राजा साहब ने गत वर्ष उसे मसूरी ही में पंद्रह सौ रुपयों में खरीदा था। 

अभी फाटक मुश्किल से कोई चालीस-पचास कदम था कि एक बुलडाग फाटक में घुस आया। उसे देखते ही जुबेदा बेतहाशा उसकी ओर भाग चली। राजा साहब एकदम बौखला उठे। वे पागल की तरह, 'पकड़ो-पकड़ो' चिल्लाते उसके पीछे भागे। उनके पीछे जुबेदा का प्राइवेट सेक्रेटरी मैं, और मेरे साथ लठैत, ख़िदमतगार अगल-बगल। जिनकी राजा साहब पर नजर पड़ी और जिसने उनकी ललकार सुनी, भाग चला। कोठी में हड़बोंग मच गया। 

फाटक पर राजा साहब हाँफते-हाँफते बदहवास होकर गिर गए। और हम लोगों को मीलों का चक्कर लगाना पड़ा। खुदा की मार इस जुबेदा की बच्ची पर ! भागते-भागते कलेजा मुँह को आने लगा। पतलून चौपट गई। नया जूता बर्बाद हो गया। आखिर जुबेदा और जिम दोनों पकड़े गए। और उन्हें खूब मुस्तैदी से बांध दिया गया। 

खुशखबरी सुनाने जब मैं राजा साहब के कमरे में पहुंचा तो वे बफरे हुये शेर की तरह दहाड़ रहे थे। सब ख़िदमतगार, लठैत, नौकर हाथ बांधे चुपचाप खड़े थे। राजा साहब कह रहे थे -- सबको गोली से उड़ा दूंगा। नामाकूल ! मर्दूद !! मेरे पहुँचने पर वे लाल-लाल आँखों से मुझे घूरने लगे। मैंने डरते-डरते हाथ जोड़कर कहा -- सरकार, दोनों को पकड़ लिया है। 

'बांधा उनको ?'

'जी हुजूर !'

'अलग-अलग ?'

'सरकार !'

'यही मुनासिब सजा है, लेकिन उस आवारा कुत्ते की जुर्रत तो देखो। मुझे हैरत है। क्या तुम जुबेदा की खानदानी इज्जत जानते हो ?'

मैंने कहा -- जी हाँ, हुजूर ने उसे पंद्रह सौ रुपयों में खरीद लिया था। 

'बेहूदा बकते हो, खरीद लिया क्या माने ? पंद्रह सौ रुपया क्या जुबेदा की कीमत हो सकती है ?'

'जी नहीं, सरकार !'

'तो फिर ?' राजा साहब ने आँखें तरेरकर मेरी ओर देखा। 

इस 'तो फिर' का क्या जवाब दूँ, यह समझ ही न सका। हाथ बांधे खड़ा रहा। इसी समय एक ख़िदमतगार दौड़ता हुआ आया। आकर उसने राजा साहब से कहा --सरकार, माधोगंज की कोठी का प्यादा हाथ में लट्ठ लिए फाटक पर खड़ा है। वह कहता है -- खैरियत इसी में है कि 'जिम' को खोल दीजिये, वरना हंगामा मच जाएगा। 

राजा साहब ने तैश में आकर कहा -- ऐसा नहीं हो सकता। माधोगंज वालों से जो करते बनें करें। 

लेकिन माधोगंज की कोठी का प्यादा खुद ही भीतर घुस आया। उसने खूब झुककर राजा साहब को सलाम किया और हाथ बांधकर अर्ज की -- हुजूर ! खुद बड़े सरकार ने मुझे भेजा है, उन्हें बहुत रंज है। लेकिन सरकार, अब हुक्म हो जाये कि कुत्ता खोलकर मेरे हवाले कर दिया जाये। बड़े सरकार बड़े गुस्सैल हैं, धुन पर चढ़ गए तो नाहक कोई खून जाएगा। 

राजा साहब गरज पड़े -- क्या कहा, खून हो जाएगा ? बढ़कर बोलता है ! नामाकूल, मर्दूद ! अच्छा ले । यह कहकर उन्होने खूब चिल्लाकर अपने लठैतों को पुकारा -- माधो, दीपा, रामू, गुललु, किसना !

परंतु लठैतों के स्थान पर आ खड़े हुये माधोगंज के राजा साहब रामधारी सिंह। साठ साल की उम्र, लंबा कद, हाथ में बढ़िया छड़ी, बदन पर पूरी रियसती पोशाक। उन्होने एकदम राजा साहब के सामने पहुँचकर कहा -- यह आपकी सरासर ज्यादती है राजा साहब, कि आप नौकरों की बेजा हरकत पर उन्हें शह देते हैं। आपका लिहाज करता हूँ --- वरना एक-एक की खाल खिंचवा लूँ। बहुत हुआ, अब जिम को मेरे हवाले कीजिये। 

राजा साहब ने बुलडाग की भांति गुर्राकर कहा -- क्या खूब ! यह दमखम और शान ? आप मेरे आदमियों की खाल खींच लेंगे ! गोया आप ही उनके मालिक हैं । चोरी और सीना-जोरी !

'लेकिन चोरी की किसने ?'

'जिम ने । ट्रेसपास, एकदम क्रिमिनल ट्रेसपास !'

'आप ज्यादती कर रहे हैं राजा साहब ! इसका नतीजा अच्छा न होगा। याद रखिए, खूनखराबी की नौबत आई तो इसके जिम्मेदार आप ही होंगे।'

'तो आप हमें धमकी दे रहे हैं ? सरीहन वह आवारा कुत्ता कोठी में घुस आया और मेरी जुबेदा को भगा ले गया। इस जुल्म को तो देखिये।' 

'कमाल करते हैं आप राजा साहब ! जिसको आप आवारा कहते हैं, क्या आप नहीं जानते कि बहुत मुद्दत की खोज के बाद जिम को मैंने जनाब गवर्नर साहब बहादुर से सौगात में पाया था ?'

'क्यों नहीं, जनाब गवर्नर साहब बहादुर से तो आपकी पुश्तैनी रसाई है। जाइए, कुत्ता नहीं खोला जाएगा।'

'अच्छी नादिरशाही है। यह आप हमारे खानदानी तौहीन कर रहे हैं।'

'खूब-खूब, गोया आप भी खानदानी रईस हैं। दो दिन की जमींदारी को चोरी-चकारी से बढ़ाकर और बनियागिरी से चार पैसे जोड़ लिए सो आप हो गए खानदानी रईस ! कमाल हो गया। और हम जो बहादुरशाह के जमाने से रईस न चले आ रहे हैं, सो ? आपका कुत्ता हमारे खानदानी कुतिया से आशनाई करेगा। एँ, यह हिमाकत !'

'रस्सी जल गई, ऐंठन बाकी है ! बाल-बाल तो कर्ज़ में बिधे पड़े हैं, आप खानदानी रईस बनते हैं। राजा साहब होश की लीजिये, चोरी और डाकेजनी के जुर्म में सारे खानदान को न बँधवा लूँ तो रामधारी नाम नहीं। आप हैं किस फेर में ?'

"आख्खा, तो यह भी देख लिया जाएगा। कर देखिये आप। नया रुपया है, उछलेगा तो जरूर ही। लेकिन मैं कहे देता हूँ, लंदन से बैरिस्टर बुलाऊंगा लंदन से। भोपाल गंज रियासत की भले ही एक-एक ईंट बिक जाये। परवाह नहीं।' 

'तो यहाँ भी कौन परवाह करता है। मैं खड़े-खड़े माधोगंज की जमींदारी को बेच दूंगा और वाशिंगटन से कौंसिल बुलाऊंगा।' 

'देखा जाएगा गवर्नर साहब बहादुर की दोस्ती पर न फूलिएगा। पक्की शहादतें दूंगा। पता चल जाएगा कोर्ट में।' 

'देख लूँगा, किसके धड़ पर दो सिर हैं ! कौन शहादत देने आता है !'

'तो तुम पर तीन हरफ हैं, जो करनी में कसर रक्खो।'  

'राजा साहब, लोथें बिछ जाएंगी, लोथें।' 

'खून की नहरें बहा दूंगा, नहरें; समझ क्या रखा है आपने ?'

दोनों पुराने रईस अपने-अपने दिल के फफोले फोड़ रहे थे। और हम लोग सिर नीचा किए खानदानी रईसों की खानदानी लड़ाई देख रहे थे। जी हाँ, रईसों की बात ही निराली है। इसी समय कुँवर साहब लपकते हुये चले आए। हल्के नीले रंग का बुश कोट, आँखों पर गहरा काला चश्मा, हाथ में टेनिस का रैकेट, गोरा रंग, घूँघर वाले बाल, होंठों पर मुस्कान, इसी साल एम ए फ़ाइनल किया था। कुँवर साहब ने माधोगंज को देखा तो उन्होने हँसकर उन्हें प्रणाम किया, और कहा -- कमाल किया आपने चाचाजी, धूप में तकलीफ की, चलिये मैं 'जिम' को आपके यहाँ पहुंचाए आता हूँ। 

राजा साहब ने एकदम गुस्सा करके कहा ---अयं, यह कैसी हिमाकत ? अपने खानदान को नहीं देखते, कुत्ता उनके घर पहुंचाने जाओगे ?

माधोगंज के राजा साहब ने जाते-जाते कहा -- 

'हौसला हो तो आ जाना अदालत में।'

'लंदन से बैरिस्टर बुलाऊंगा---आपने समझ क्या रखा है?'

'तो मुकाबिले के लिए वाशिंगटन के वकील तैयार रहेंगे।' 

इसी समय एक ख़िदमतगार रोता-हाँफता सिर के बाल नोंचता आ खड़ा हुआ। उसने कहा --गजब हो गया सरकार, जुबेदा उस जंगली जिम के साथ भाग गई।'

'अयं, भाग गई ?'

राजा साहब बौखलाकर अपनी तोंद पीटने और हाय-हाय करने लगे। लंबी-लंबी सांसें खींचते हुये उन्होने कहा--'मेरी खानदानी इज्जत लुट गई। कमबख्त जुबेदा की बच्ची ने न अपने खानदान का खयाल किया न मेरे आली खानदान का। दोनों की लुटिया डुबोई।'

बहुत देर तक राजा साहब कलपते रहे। इसके बाद मेरी ओर देखकर कहा --

'निकल जाओ ! अभी चले जाओ---नामाकूल, मर्दूद !'


और इस तरह खट से मेरा पतंग कट गया। इज्जत और आराम की नौकरी छूट गई। अब सिर्फ याद रह गए वे सात महीने और सत्ताईस दिन। 

अब कहाँ रहे वे खानदानी रईस। अंग्रेज़ बहादुर हिंदुस्तान से क्या गए, शौकीन राजाओं और शानदार रईसों की नस्ल ही खत्म कर गए। भारत के भाग्य तो जरूर जागे--- पर विलायती कुत्तों की और हम जैसे विलायती पढ़-पिट्ठूओं की तकदीर तो फूटी और फिर फूटी। 




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