हीरों का हार - मोपासां की एक हृदयस्पर्शी कहानी | Heeron ka haar - A Heart touching Story by Maupassan

 हीरों का हार 

(सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक मोपासां की एक कहानी का भावानुवाद)

वह किसी का भी मन मोह लेने की क्षमता रखने वाली, उन रूपवती लड़कियों में से थी, जिनका जन्म उनके किसी भाग्य-दोष के कारण निम्न-मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा परिवारों में हो जाता है. उसके भाग्य में न तो दहेज़ था; न ही भविष्य को लेकर कोई बहुत बड़ी आशा. उसके जीवन में ऐसा कुछ नहीं था कि उसका उच्च धनी वर्ग में परिचय होता; वह उनमें से किसी से प्रेम करती; विवाह करती. 

उसका विवाह हुआ, शिक्षा विभाग के एक तुच्छ क्लर्क के साथ. 

वह बेचारी सीधे-सादे कपड़ों में काम चलाती. बढ़िया पोशाकें उसके भाग्य में थी ही कहाँ ? किन्तु वह जानती थी कि वह इतनी सुन्दर है कि उसका जीवन और बेहतर हो सकता था. यही कारण था कि वह हमेशा इस प्रकार चिंतित रहती जैसे उससे उसकी वास्तविक जगह छीन ली गई हो. 

उसके ह्रदय को यह दुःख हमेशा सालता रहता कि उसका जन्म तो जीवन की समस्त सुख-सुविधाओं और आनंद के उपभोग के लिए हुआ है किन्तु वास्तविकता में उसके साथ यह दुःख-दारिद्र्य क्यों है ? पति के घर की टूटी-फूटी दीवारे, जीर्ण-शीर्ण कुर्सियां, फटे-पुराने परदे देखकर वह मन मसोस कर रह जाती. कोई साधारण स्त्री जिन बातों की परवाह तक नहीं करती वहीं बातें उसे चिंतित और क्रोधित करती रहतीं. 

वह कल्पना करती एक सर्व सुविधायुक्त आलीशान भवन की, जिसमें विलासिता का ढेरों सामान मौजूद है. वह कल्पना करती  कि उसके घर में तमाम सारे नौकर चाकर हैं जो बस यूँ ही काम न होने की वजह से गरम चूल्हें के पास बैठे-बैठे ऊंघ रहे हैं, और सन्ध्या-समय, ऐसे सुरुचिपूर्ण भवन की शानदार सुसज्जित बैठक में वह अपने मित्रों और सखियों के साथ, जो कि समाज में प्रतिष्ठित और ऊंचें ओहदों पर हैं, बैठी गपशप कर रही है. 

किन्तु वास्तविक जीवन में जब वह तीन दिन पुरानी चादर से ढंकी छोटी सी मेज पर पति के साथ खाने के लिए बैठती और उसका पति थाली में मात्र सूप को देखकर ही कहता, 'वाह, इससे बढ़िया चीज़ और क्या होगी ?', तब वह सपना देखती उम्दा खानपान का, चांदी के बर्तनों का, सुन्दर प्लेटों में सजे हुए विभिन्न स्वादिष्ट पदार्थों का और खाते समय प्रेमियों की मनुहार सुनने का. 

न बेचारी के पास ढंग के कपडे थे और न ही गहने. और विडम्बना ये कि उसे प्यार था तो बस साज श्रृंगार से. वह सोचती कि बस श्रृंगार के लिए ही तो उसकी सृष्टि हुई है. वह चाहती कि कोई उससे ईर्ष्या करता, कोई उसे चाहता, उस पर मुग्ध होता, उसे पाने का प्रयत्न करता !

उसकी एक सहेली थी, उसकी बचपन की सखी. दोनों एक साथ ही पढीं थीं. किन्तु, दोनों में एक फर्क था. सखी बहुत धनवान थी. उसने अपनी उस सहेली से भी मिलना-जुलना बंद कर दिया था क्योंकि उसके यहाँ से लौटने पर उसे  बहुत मानसिक पीड़ा होती थी. 

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एक दिन उसका पति बहुत खुश होता हुआ दफ्तर से लौटा. उसके हाथ में एक बड़ा सा लिफाफा था. 

"देखो," उसने कहा, "इसमें तुम्हें खुश कर देने वाली एक चीज़ है."

उसकी उत्सुक उँगलियों ने झट से वह लिफाफा खोल लिया. उसके भीतर एक कार्ड था जिस पर छपा था - "18 जनवरी, सोमवार की सन्ध्या को, शिक्षा विभाग के समारोह में सम्मिलित होने के लिए शिक्षा सचिव और श्रीमती जॉर्ज, श्रीमान और श्रीमती लोइज़ल को आमंत्रित करते हैं."

पति की आशा के विपरीत, प्रसन्न होने के बदले, निराशा से निमंत्रण-पत्र को टेबल पर फेंक कर, मुँह फुलाकर वह बोली - "मैं इसका क्या करूं ?"

पति मनुहार सी करते हुए बोला - "मेरी प्यारी, मैं तो सोचता था कि ये निमंत्रण पाकर तुम बहुत खुश होगी. तुम वैसे भी कभी बाहर निकलती ही नहीं. यह तो एक तरह से सुनहरा सुयोग है. इतने ऊंचे समारोह में मेरे जैसे छोटे पद वालों को कोई बुलाता ही नहीं, यह तो हमारा सौभाग्य है कि हमें बुलाया गया है. केवल चुने-चुने लोगों को ही निमंत्रण भेजे गए हैं. और दूसरे किसी क्लर्क को यह निमंत्रण नहीं मिला है. तुम जरा सोचो तो सही, शहर के सभी ऊंचे ओहदेदार लोग वहाँ होंगे !"

उसने आँखों से चिंगारी सी छोड़ते हुए पति की ओर देखा और बोली - "मान लो मैं जाऊँगी भी, तो क्या पहनकर ?"

बेचारा पति, उसने इस प्रश्न की कल्पना भी नहीं की थी. लड़खड़ाते स्वर में बोला - "क्यों ? तुम्हारी वह पोशाक तो बड़ी अच्छी है जिसे पहनकर तुम नाटक देखने जाया करती हो. मुझे तो वह बहुत ही सुन्दर मालूम होती है."

किन्तु स्त्री के सुकोमल कपोलों पर तब तक दो आंसू ढुलक आये थे, जिन्हें देखकर वह ठिठक गया. घबराए से स्वर में बोला - "क्यों ? क्या हुआ ?"

उसने यत्नपूर्वक अपनी उदासी पर काबू पाकर, आंसुओं को पोंछते हुए, शांत स्वर में कहा - "कुछ भी तो नहीं हुआ. मेरे पास तन ढंकने को ढंग का कपडा भी नहीं. मैं ऐसे ऊंचे समारोह में नहीं जा सकती. अपना यह निमंत्रण-पत्र किसी ऐसे साथी को दे दो जिसकी पत्नी मुझसे अधिक भाग्यशाली हो."

वह निराशा के सागर में डूबने लगा. फिर भी हिम्मत करके बोला - "अच्छा, एक मिनट सुनो. तुम मुझे बताओ कि एक अच्छी सी पोशाक में कितना खर्च हो जाएगा जिसे पहनकर तुम ख़ास-ख़ास मौकों पर बाहर जा सको ?"

वह कुछ देर तक विचार करती रही, मन ही मन हिसाब लगाती रही. वह जानती थी, एकदम से बड़ी सी रकम बता देने पर उसका मितव्ययी पति घबरा जाएगा और झट से ना कर बैठेगा. 

अंत में उसने खूब सोच-विचारकर कहा - "अब मैं एकदम ठीक-ठीक तो नहीं बता सकती किन्तु मेरा अंदाजा है कि चार सौ फ्रैंक में काम चल जाएगा."

पति का चेहरा तनिक कुम्हला सा गया क्योंकि उसके पास बचत की लगभग इतनी ही रकम थी, जिससे वह एक बढ़िया सी बंदूक खरीदकर, आगामी गर्मियों में मित्रों के साथ जंगल में शिकार पर जाने के मनसूबे बनाए बैठा था.

फिर कुछ सोचकर बोला - "बहुत ठीक, मैं तुम्हें चार सौ फ्रैंक दे दूंगा. एक बढ़िया सी पोशाक बनवा लो."

समारोह का दिन नजदीक आने लगा. पोशाक बनकर तैयार हो गई. किन्तु श्रीमती लोइज़ल की बेचैनी, उत्सुकता और उदासी बढ़ने लगी. उसका पति एक दिन बोला - "क्या बात है ? पिछले तीन चार दिनों से तुम कुछ उदास सी दिखाई दे रही हो ?"

वह बोली - "अब तुमसे क्या कहूँ ? पोशाक तो ठीक है किन्तु मेरे पास पहनने के लिए एक भी जेवर नहीं है. बिना जेवर के मैं कितनी बेहूदी दिखूंगी. इससे तो अच्छा है मैं समारोह में जाऊं ही नहीं !"

पति बोला - "तुम इतनी सुन्दर हो लोइज़ल कि तुम्हें जेवरों की कोई जरूरत ही नहीं है. तुम तो दो गुलाब के फूल भी लगा लोगी तो सबसे सुन्दर दिखोगी. मैं तुम्हारे लिए दो-तीन बड़े सुन्दर गुलाब ला दूंगा."

परन्तु मानिनी रुखाई से बोली - "कोई जरूरत नहीं ! इतने बड़े-बड़े धनवान लोगों के बीच निर्धनों की तरह सम्मिलित होने से अधिक लज्जा की बात और क्या होगी ? मैं नहीं जाऊँगी."

पति कुछ सोचते हुए बोला - "तुम भी बड़ी जिद्दी हो ... अच्छा एक काम करो .... वह तुम्हारी बचपन की सहेली है न ! श्रीमती फोरेस्टियर ! वह तो बहुत बड़ी पैसे वाली है. तुम उससे काम चलाने के लिए एक दो गहने क्यों नहीं मांग लेती? वह तुम्हें मना थोड़े ही करेगी."

अचानक लोइज़ल की आँखों के सामने जैसे बिजली सी कौंधी. बोली - "ये तुमने ठीक कहा. ये बात मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई..."

दूसरे दिन वह अपनी सखी के घर पर उसके सामने बैठी थी. 

श्रीमती फोरेस्टियर ने एक बड़ी सी शीशा जड़ी अलमारी का दरवाजा खोलकर गहनों का एक डिब्बा उसके सामने रखते हुए कहा - "मेरी प्यारी लोइज़ल, तुम्हें जो चाहिए वह इसमें से ले लो."

उसने सभी गहने देखे. चूड़ियां थी, मोतियों का कंठहार था, जड़ाऊ 'क्रॉस' था, और भी न जाने क्या क्या था... सभी गहने एक से बढ़कर एक थे. 

उसने एक-एक गहना पहनकर दर्पण के सामने अपनी शोभा की परीक्षा की. उन गहनों को उतारते हुए उसे बड़ा दुःख होता था. वह निश्चय नहीं कर पा रही थी कि कौन सा ले और कौन सा छोड़े ?

अपनी सखी से बोली - "क्यों बहन, और गहने नहीं हैं क्या ?"

"हाँ, हैं न !" सखी मुस्कुरा कर बोली. और उसने अलमारी से एक डिब्बा निकाला जिसमें हीरों का एक चन्द्रहार रखा हुआ था. हार देखते ही उसका ह्रदय जोरों से धड़कने लगा. उसे उठाते समय उसके हाथ कांपने लगे. 

जब उसने उस हार को अपने गले में पहना, तब स्वयं ही अपने सौंदर्य पर मुग्ध हो गई. 

उसने बड़े संकोचपूर्वक, चिंता से व्यग्र होते हुए अपनी सखी से पूछा - "क्या तुम यह हार .... सिर्फ यह हार ... एक दिन के लिए मुझे मंगनी दे सकती हो ?"

सखी सचमुच बड़े दिलवाली थी. वह बड़े प्यार उस हार का डब्बा उसके हाथ में देते हुए बोली - "मेरी प्यारी लोइज़ल, तुम्हारे सामने इस हार की कोई कीमत नहीं. तुम इसे बड़ी ख़ुशी से ले जाओ."

ख़ुशी के मारे पागल सी होकर वह अपनी सखी से लिपट गई.  और फिर, आनंदविभोर होकर, हाथ में वह अनमोल धरोहर लिए, अपने घर की ओर चल दी. 

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समारोह का दिन आ गया. श्रीमती लोइज़ल सुन्दर तो थी ही, उस पर आनंद का सागर उसके ह्रदय में हिलोरें मार रहा था, सो वह पूरे समारोह के आकर्षण का केंद्र बनी रही. हर कोई उसे पूछ रहा था, उसका परिचय प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा था. यहाँ तक कि शिक्षा विभाग के सचिव और अन्य उच्च अधिकारी भी उसके साथ नृत्य करने को आतुर नजर आये. 

उस रात अपने सौंदर्य की विजय के गर्व का उसे नशा सा हो गया. उस नशे में चूर होकर वह खूब नाची. अपनी और अपने पति की छोटी हैसियत उसे याद तक न रही. उस रात, अपने आदर-सत्कार से उपजी ख़ुशी में सराबोर जैसे वह सबकुछ भूल गई. 

वह प्रातःकाल चार बजे लौटी. उसका पति आधी रात से ही समारोह छोड़कर दूसरे कमरे में बैठा ऊंघ रहा था. उसके साथ तीन साथी और थे जिनकी पत्नियां भी नृत्य समारोह में शामिल थीं. 

एक अच्छे पति का फ़र्ज़ निभाते हुए उसने उसे गरम शाल ओढ़ा दी. किन्तु उस नृत्य की पोशाक पर वह शाल उसे ऐसी मालूम हुई जैसे किसी ने सम्पन्नता पर दरिद्रता की चादर ओढ़ा दी हो. वह उसे बड़ी बुरी मालूम हुई. वह झट वहाँ से चल दी ताकि कोई और बहुमूल्य शाल ओढ़े हुए स्त्री उसकी शाल को देख न ले और उसे छींटाकशी का मौका मिल जाए. 

पति भी उसके पीछे पीछे चलता हुआ बोला - "थोड़ी देर ठहरो यहीं पर, तब तक मैं टैक्सी बुला लाता हूँ. बाहर बहुत सर्दी है."

किन्तु उसने पति की बात पर ध्यान नहीं दिया. वह झटपट सीढियां उतरकर सड़क पर आ पहुंची. बाहर सचमुच बहुत ठण्ड थी. वहाँ कोई गाडी भी दिखाई नहीं दे रही थी. 

ठण्ड से कांपते हुए और निराश मन से वे दोनों सीन नदी की ओर चल दिए. अंत में चौराहे पर रात में चलने वाली एक पुरानी गाडी उन्हें दिखाई दी. वह भी मानो अपनी दरिद्रता को छुपाने के लिए सूर्यास्त से पहले पेरिस की गलियों में अपना मुँह नहीं दिखाती थी. 

उसी गाडी में बैठकर वे अपने घर पहुंचे और बड़े उदास मन से उन्होंने अपने घर में प्रवेश किया. श्रीमती लोइज़ल को आनंद के उन क्षणों के बीत जाने की टीस हो रही थी तो पति इस चिंता में था कि उसे दस बजे ऑफिस जाना है.  

खैर, वस्त्र बदलने के पहले अपने सौंदर्य को एक बार फिर निहारने के लोभ से वह दर्पण के सामने खड़ी हुई. सहसा उसके मुख से एक तेज़ चीख निकली. हीरों का हार, जो वह अपनी सहेली से मांगकर लाई थी, उसके गले में नहीं था. 

उसका पति अभी अपने कपडे खोल भी नहीं पाया था, घबराकर उसके पास आया और बोला - "क्यों ? क्या हुआ ?"

"खो .... खो गया .... कहीं गिर गया .... हीरों का वह हार जो मैं श्रीमती फोरेस्टियर से मांगकर लाई थी !" वह लडखडाते शब्दों में बोली. 

पति ने यह सुना तो एकबारगी वह जड़वत सा खड़ा रह गया. 

"क्या ? ऐसा कैसे हो सकता है ?" वह भयाक्रांत स्वर में बोला. 

उन्होंने कपड़ों की एक एक तह खोज डालीं, एक एक जेब खोज डाली, परन्तु हार का कहीं पता न चला. 

"तुम्हें अच्छी तरह से याद है, समारोह से लौटकर तुम उसे पहनें थीं ?"

"हाँ, मैंने समारोह-भवन के बाहर उसे हाथ लगाकर देखा था...."

"यदि हार रास्ते में गिरता तो उसके गिरने की कोई न कोई आवाज जरूर होती. हो न हो, हार गाड़ी में ही कहीं गिरा है !" पति ने अनुमान लगाते हुए कहा. 

"हाँ, बिलकुल मुझे भी यही लगता है. तुमने गाड़ी का नंबर लिया था न ?"

"नहीं, तुमने लिया था क्या ?"

"नहीं .... "

निराश मुद्रा में बैठे वे दोनों एक दूसरे का मुँह ताकने लगे. 

थोड़ी देर बाद पति कुछ संयत हुआ. कपडे पहनकर बाहर निकलता हुआ बोला - "मैं उसी रास्ते पर पैदल जाता हूँ. देखूँ, शायद कहीं मिल जाय."

वह वस्त्र बदलना भूलकर जैसी थी वैसी ही कुर्सी पर निश्चेष्ट होकर बैठी रही. 

पति को लौटते लौटते सुबह के सात बज गए थे. हार का कहीं पता न चला था. 

उन्होंने पुलिस को खबर की, अखबारों में इनाम की सूचना छपवाई, जिस गाड़ी में वे बैठकर आये थे, उस जैसी दिखने वाली एक एक गाड़ी को छान मारा, किन्तु सब निरर्थक रहा. 

भयानक विपत्ति आन पड़ी थी. उसकी नींद भूख सब गायब हो चुकी थी. अगर कुछ था तो बस निराशा और निराशा. 

पति हार की खोज कर कर के पीला चेहरा और सूखे होंठ लेकर शाम को लौटा. बोला - "तुम्हें अपनी सहेली को लिख देना चाहिए कि हार एक एक जोड़ टूट गया है. उसे सुनार के पास सुधरवाने भेजा है. आते ही वापस कर जायेंगे. इससे हमें खोजबीन के लिए कुछ और समय मिल जाएगा."

बेचारी और कर भी क्या सकती थी. पति ने जैसा कहा, उसने सहेली को लिख भेजा. 

हार को खोये हुए एक सप्ताह बीत गया. इस एक सप्ताह में आशा की जितनी भी किरणें थी, धीरे-धीरे एक-एक करके विलुप्त होती चली गईं. इस एक सप्ताह में ही बेचारे पति की उम्र में जैसे पांच साल बीत गए. 

उसने कहा - "वह हार तो अब मिलने से रहा. अब बदले में हमें वैसा ही दूसरा हार लेकर देने की चिंता करनी चाहिए."

दूसरे दिन हार का बक्सा लेकर दोनों उस जौहरी की दूकान पर पहुंचे जिसका नाम उस पर अंकित था. उसने अपने खाता-बही देखकर बताया - "मैंने यह हार नहीं बेचा था. मैंने तो केवल बक्सा ही बनाकर दिया था."

फिर एक के बाद एक बहुत से जौहरियों की दुकानों पर वे वैसे ही हीरों के हार की खोज में भटकते रहे. आखिरकार, 'रॉयल पैलेस' नाम की एक दुकान पर उन्हें हीरों का एक वैसा ही हार दिखाई दिया जैसा उन्होंने खो दिया था. दुकानदार ने उसकी कीमत चालीस हजार फ्रैंक बताई किन्तु मोलभाव करने पर वह उसे छत्तीस हजार फ्रैंक में देने को राजी हो गया. 

उन्होंने दुकानदार से अनुरोध किया कि तीन दिनों तक वह हार अपने पास रखे किसी और को न बेचे. साथ ही यह भी तय हो गया कि यदि असली हार मिल गया तो फरवरी के अंत तक वह अपना हार चौंतीस हजार फ्रैंक में वापस ले लेगा. 

श्रीमान लोइज़ल के पिता कुल 18 हजार फ्रैंक की संपत्ति छोड़कर मरे थे. "शेष रकम उधार लेनी पड़ेगी," उसने सोचा. 

किसी से हजार, किसी से पांच सौ कर कर के उसने कई लोगों से पैसे उधार लिये. उसने हुंडियां लिख-लिख कर दीं, अपना सर्वनाश कराने वाले इकरारनामे किये. इस प्रकार, उसने एक तरह से अपना सारा भावी जीवन गिरवी रख दिया. बिना विचारे ही, कि वह इतना क़र्ज़ चुका भी सकेगा या नहीं, उसने अपने हाथ कटा लिए. 

और फिर, भविष्य की दुखद कल्पना के भार तले दबा हुआ, आने वाले दारिद्र्य के अन्धकार की आशंका से ग्रस्त, वह नया हीरों का हार खरीदने गया. 

जौहरी की मेज पर उसने 36 हजार फ्रैंक की थैली उलट दी और बदले में हार लेकर चला आया. 

जब श्रीमती लोइज़ल हार लौटाने श्रीमती फोरेस्टियर के घर गईं तो उन्हें सुनना पड़ा - "हार जल्दी लौटा देना चाहिए था. वह तो अच्छा हुआ इस बीच मुझे इसकी जरूरत नहीं पड़ी वर्ना क्या होता ?"

श्रीमती लोइज़ल ने बक्से को खोला नहीं. वह डर रही थी कि कहीं सहेली को यह पता न लग जाय कि यह हार दूसरा है. वह कहीं यह जानकर उसे चोर न समझ बैठे ?

खैर, हार अपनी जगह पहुँच गया. लेकिन अब श्रीमती लोइज़ल के जीवन में देनदारी नाम की ऐसी विपदा थी जिससे छुटकारा पाना लगभग असंभव दिखता था. किन्तु क़र्ज़ तो चुकाना पड़ेगा, इसलिए उसने पूरी बहादुरी से इस आपदा का सामना करने में तत्परता दिखाई. 

उन्होंने नौकर को हटा दिया. अभी जहां रहते थे उस मकान को छोड़कर एक सस्ते से मकान के ऊपर के तल्ले में एक छोटी सी कोठरी में रहने लगे. रसोई-बर्तन, झाड़ू, कपड़े सभी घर के छोटे बड़े कामों को उसने खुद करना शुरू कर दिया. हाथ में डलिया लेकर गरीब घरों की स्त्रियों की तरह के कपड़े पहनकर खुद ही साग - सब्जी, किराना इत्यादि लेने जाती और वहां एक-एक पैसे के लिए झगडती और अपमान सहती. 

हर महीने वे थोडा क़र्ज़ चुकाते, कुछ कर्जों की तारीख आगे बढाने के लिए प्रार्थना करते. 

पति दिन भर अपनी नौकरी करता फिर वहां से आकर एक दुकानदार के यहाँ हिसाब-किताब का काम करता. फिर रात को प्रति पृष्ठ पांच पैसे के हिसाब से हस्तलिखित प्रतियों की नक़ल करता. 

इसी तरह दस बरस बीत गए और इन दस बरसों में उन्होंने लगभग सबका क़र्ज़ चुका दिया. ब्याजखोरों का ब्याज, फिर ब्याज पर ब्याज ... सबकुछ चुका दिया.

किन्तु इन दस बरसों में ही श्रीमती लोइज़ल बुढ़िया सी दिखाई देने लगीं. उसका स्वभाव अक्खड़ और रूखा हो गया. और अपने सौन्दर्य पर ध्यान देना तो जैसे वह कभी जानती ही न थी. न कभी बाल संवारती, हाथ-पैर मैले रहते और कपड़े फटे. 

बस, कभी कभी जब उसे थोड़ी सी फुर्सत मिलती तो वह उस रात की बात सोचती, जब उसने अपने सौन्दर्य से विजय-लाभ लिया था. 

और फिर याद आता वह हीरों का हार ! काश ! वह हार नहीं खोया होता तो क्या होता ? कौन जानता है, किसे पता है ? सर्वनाश अथवा उससे बचाव के लिए कितनी छोटी सी बात पर्याप्त है !

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एक रविवार को उसे थोड़ी सी फुर्सत मिली तो वह एक पार्क में घूमने चली गई. दूर से उसे एक स्त्री आती हुई दिखाई दी जिसकी ऊँगली एक बालक ने पकड़ी हुई थी. वह स्त्री और कोई नहीं, श्रीमती फोरेस्टियर थी, उसकी बचपन की सहेली, जो अब भी पहले की तरह जवान और तंदुरुस्त दिखाई दे रही थी. 

उसे देखकर श्रीमती लोइज़ल के मन में एक हुक सी उठी. क्या मुझे उससे बात करनी चाहिए ? जरूर ! और अब जब उसने सारा क़र्ज़ चुका ही दिया है तो सत्य बात कह देने में हर्ज़ ही क्या है ?

वह उसकी ओर आगे बढ़ी.

"नमस्कार, जेनी !"

एक दरिद्र घर की सी स्त्री के मुँह से अपने लिए एक परिचित का सा संबोधन सुनकर श्रीमती फोरेस्टियर एक क्षण को ठिठकी सी रह गईं. फिर संकोच के साथ बोलीं - "लगता है आपको कोई गलतफहमी हो रही है श्रीमती जी, मैंने आपको नहीं पहचाना ?"

"मैं हूँ, मेथिल्दे लोइज़ल," अपने होठों पर सायास मुस्कराहट लाते हुए वह बोली. 

और उसने उसे पहचान लिया. 

"ओह, मेरी प्यारी मेथिल्दे, इतने दिनों कहाँ थीं तुम ? ये तुम्हें क्या हो गया ? तुम्हारा हुलिया ऐसा कैसे हो गया ?" सखी लगभग चिल्ला उठी.

"हाँ मैंने बहुत बुरा वक़्त बिताया है जिससे मेरी ये हालत हो गई है. और इसका कारण तुम हो. जब तुमसे आखिरी बार मिली थी तभी से यह नारकीय जीवन बिता रही हूँ. तुम्हारे ही कारण !"

"मेरे कारण ? कैसे - कैसे ?"

"तुम्हें याद है तुमने अपना एक हीरों का हार एक नृत्य-समारोह में पहनने के लिए मुझे मंगनी पर दिया था ?"

"हाँ, याद है."

"मैंने उसे खो दिया था !"

"क्या कहती हो ? तुम तो उसे लौटा गईं थीं ?"

"ठीक वैसा ही हीरों का नया हार खरीद कर मैंने तुम्हें लौटाया था, और उसी की कीमत विगत दस साल से हम दोनों चुकाते रहे हैं. हम गरीबों के लिए यह कोई आसान काम तो था नहीं. लेकिन वो बात अब गई-गुजरी हो गई. सारा कर्जा चुक गया. अब मैं बहुत खुश हूँ."

श्रीमती फोरेस्टियर को जैसे काठ मार गया हो.

"तुमने क्या कहा ? मेरे हार के बदले तुमने नया हीरे का हार खरीद कर दिया था ?"

"हाँ, लेकिन लगता है तुम्हें अभी तक पता नहीं चला. चलता भी कैसे, दोनों बिलकुल एक जैसे जो थे !"

गर्व और निश्छलतापूर्ण हर्ष से वह मुस्कुराने लगी. 

श्रीमती फोरेस्टियर की आँखों से अश्रु-धारा बह निकली. उसने भावावेश में लोइज़ल को अपनी बांहों में भर लिया. 

"ओह मेरी प्यारी सखी, ये तुमने क्या किया ? कम से कम एक बार मुझे बताया तो होता ! मेरा हार तो नकली हीरों का था, उसकी कीमत पांच सौ फ्रैंक से ज्यादा नहीं रही होगी."




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