स्वार्थ का परिणाम - पंचतंत्र की कहानी | Swarth Ka Parinam - A Panchatantra Story

प्राचीन काल में किसी नगर में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नामक दो युवक रहते थे. दोनों ही गरीब थे और आपस में मित्र थे, किन्तु स्वभाव दोनों के अलग-अलग थे. अपने नाम के अनुरूप धर्मबुद्धि जहां धर्मपरायण और ईमानदार था तो वहीं पापबुद्धि स्वार्थी और कुटिल विचारों वाला व्यक्ति था. 

गरीबी से तंग आकर एक रोज दोनों मित्रों ने फैसला किया कि परदेस जाकर धन कमाया जाए क्योंकि संसार में निर्धनता से बड़ा कोई अभिशाप नहीं है. अपने - अपने माता पिता से आज्ञा लेकर दोनों परदेस चले गए. 

धर्मबुद्धि के ईमानदार और सुशील स्वभाव के चलते उसने परदेस में काफी धन अर्जित कर लिया. पापबुद्धि भी धर्मबुद्धि के प्रभाव की छत्रछाया तले ठीकठाक धन कमाने में सफल रहा. फिर एक दिन उन्होंने सारा धन एकत्र कर वापस अपने गृहनगर लौटने का फैसला किया. 

जब वे लोग चलते -चलते अपने गृहनगर के नजदीक पहुंचे तब पापबुद्धि के दिमाग में एक कुटिल विचार ने जन्म लिया. वह धर्मबुद्धि से बोला - "मित्र, इस प्रकार इतना सारा धन एक साथ लेकर घर जाना मुझे उचित नहीं लग रहा है ... क्या पता इतना धन देखकर हमारे कुटुम्बी जन हमसे धन की मांग करने लगें. ये भी संभव है कि चोर लुटेरे हमारे इस धन को देखकर लालायित हो जाएँ और हमारे घरों में चोरी करके सारा धन ले जाएँ."

सीधा-सादा धर्मबुद्धि पापबुद्धि की बातों से सहमत हो गया. बोला - "बात तो तुम ठीक कहते हो मित्र, ये धन हमने बड़ी मेहनत करके कमाया है, इसकी सुरक्षा की चिंता करना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है. तो बताओ, हमें क्या करना चाहिए ?"

पापबुद्धि बोला - "मेरे दिमाग में एक विचार आया है. हम अपना अधिकाँश धन यहीं जंगल में कहीं गाड़ देते हैं. और फिर बाद में आवश्यकता होने पर थोडा थोडा खोदकर ले जाया करेंगे. इससे किसी को हमारे धन का पता नहीं चलेगा और न ही कोई ये जान पायेगा कि हमने कितना कमाया है."

सीधासादा धर्मबुद्धि पापबुद्धि की बातों में आ गया और उन्होंने वहीं जंगल में एक वटवृक्ष के नीचे अपना अपना धन गाड़ दिया. थोडा सा धन अपने साथ लेकर वे अपने घर चले गए. 

दूसरे ही दिन आधी रात को पापबुद्धि जंगल में पहुंचा और चुपचाप सारा धन खोदकर निकाल ले गया. 

कुछ दिनों बाद धर्मबुद्धि को धन की आवश्यकता हुई तो उसने पापबुद्धि से कहा - "भाई, चलो जंगल से कुछ और धन निकाल लाते हैं, मुझे आवश्यकता आन पड़ी है."

और दोनों मित्र जंगल में उसी वटवृक्ष के नीचे पहुंचे जहां उन्होंने धन गाड़ा था. वहाँ खोदा तो कुछ भी नहीं निकला क्योंकि धन तो पापबुद्धि पहले ही निकाल कर ले जा चुका था. 

फिर तो पापबुद्धि एकाएक सिर पीटते हुए रो रो कर कहने लगा - "अरे कपटी धर्मबुद्धि, तूने मुझे धोखा दिया ! चुपचाप यहाँ से सारा धन खोद ले गया और गड्ढे को मिटटी से भर दिया. मित्र होकर भी तूने ऐसा कार्य किया. चुपचाप उसमें से आधा धन मुझे दे दे नहीं तो मैं राजा के पास जाकर तेरी शिकायत करूंगा !"

धर्मबुद्धि भी धन को गायब देखकर हैरान था. उसे भी क्रोध आ गया, बोला - "दुष्ट, मैंने अपने जीवन में कभी चोरी नहीं की न झूठ बोला. मुझे तो लगता है तू ही धन निकाल ले गया है और मुझ पर आरोप लगा रहा है. मैं तो इस जगह पर उस दिन के बाद आज पहली बार आया हूँ."

दोनों लड़ते - लड़ते राजसभा में पहुंचे और एकदूसरे पर कपट और चोरी का आरोप लगाते हुए न्याय की दुहाई देने लगे. राजा ने एक न्यायाधिकारी को दोनों का मामला जांचने के लिए भेजा. 

न्यायाधिकारी ने दोनों से अलग अलग पूछताछ की, वटवृक्ष के पास आकर भी देखा, तो भी उसे कुछ समझ में नहीं आया कि धन किसने लिया होगा. 

आखिर उसने दोनों से पूछा - "क्या कोई ऐसा साक्षी है जिसके सामने तुमने धन गाड़ा था ?"

धर्मबुद्धि ने इनकार में सिर हिलाया किन्तु पापबुद्धि वटवृक्ष की ओर देखता हुआ तुरंत बोला - "इस मामले में वृक्ष देवता ही हमारे साक्षी हैं, उन्होंने ही चोर को भी अवश्य देखा होगा."

"किन्तु वृक्ष देवता बोलेंगे थोड़े ही," न्यायाधिकारी ने हँसते हुए कहा. 

"क्यों नहीं बोलेंगे, अवश्य बोलेंगे. यह धर्मबुद्धि खुद चोर होकर मुझे जैसे सच्चे आदमी पर आरोप लगा रहा है तो वृक्ष देवता को अवश्य बोलना पड़ेगा. आप कल पूरी राजसभा को लेकर यहाँ आइये, यदि मैं सच्चा हूँ तो वृक्ष देवता अवश्य बोलेंगे. उन्हें बोलना पड़ेगा." पापबुद्धि ने आवेश में आते हुए कहा.

न्यायाधिकारी के पास और कोई उपाय भी तो नहीं था. उसने पापबुद्धि की बात मान ली. 

घर जाकर पापबुद्धि अपने वृद्ध पिता से बोला - "पिताजी, वटवृक्ष के नीचे से सारा धन मैं ही खोदकर लाया हूँ. यदि किसी भी तरह राजा को पता चल गया कि मैं चोर हूँ तो वह मुझे फांसी चढ़ा सकता है या ज़िन्दगी भर के लिए जेल भेज सकता है. इसीलिए इस मामले का पटाक्षेप करने के लिए मैंने एक उपाय सोचा है जिसमें आपको मेरी मदद करनी होगी. अब आप ही मेरी जान बचा सकते हैं."

पिता आखिर था तो पापबुद्धि का ही, सारा धन अपने ही घर में आ गया है यह सुनकर उसे मन ही मन ख़ुशी हुई. उसने पूछा - "मुझे क्या करना होगा ?"

पापबुद्धि बोला - "उस वटवृक्ष के तने में एक बड़ा सा कोटर है. आप आज रात को ही उसमें छिपकर बैठ जाइए. कल जब न्यायाधिकारी और पूरी राजसभा वहाँ एकत्र होगी तब वे लोग वृक्ष देवता से चोर का नाम पूछेंगे. आपको बस कोटर के भीतर बैठे बैठे चोर का नाम धर्मबुद्धि बताना है. इसके बाद वह सारा धन हमेशा के लिए हमारा हो जाएगा."

धनमोह और पुत्रमोह, दोनों के वशीभूत होकर पिताजी रात में ही जाकर वटवृक्ष के कोटर में छिप गए. 

उधर धर्मबुद्धि के मन में भी शंका उत्पन्न हो चुकी थी कि आखिर पापबुद्धि ने वृक्ष से गवाही दिलवाने की बात क्यों कही ? उसे इसमें पापबुद्धि की कोई चाल नजर आ रही थी इसलिए वह भी रात्रि में वृक्ष का मुआयना करने जंगल में आया हुआ था. उसने दूर से पापबुद्धि के पिता को वृक्ष के कोटर में छिपते हुए देखा तो उसे सारा माजरा समझ में आ गया. 

अगले दिन जब राजसभा के सदस्यों के साथ न्यायाधिकारी वहाँ पहुंचे तब पापबुद्धि और धर्मबुद्धि भी पहुँच गए. किन्तु धर्मबुद्धि सूखे घासफूस का एक बड़ा सा गट्ठर लेकर आया था. उसने वह गट्ठर उसी कोटर के मुँह पर टिकाकर रख दिया, जिसमें पापबुद्धि का पिता छिपा हुआ था. 

न्याय की प्रक्रिया शुरू हुई. पापबुद्धि की मांग के अनुसार, न्यायाधिकारी ने चिल्लाकर वटवृक्ष से पूछा - "वृक्ष देवता, आप ही बताइये इन दोनों में से कौन चोर है ?"

वृक्ष से आवाज आई - "धर्मबुद्धि चोर है. यही एक दिन चुपचाप आकर सारा धन निकाल ले गया है." निस्संदेह यह आवाज पापबुद्धि के पिता की थी.

आवाज सुनकर न्यायाधिकारी सहित उपस्थित सभी लोग आश्चर्य में पड़ गए और वृक्ष देवता की जयजयकार करने लगे. पापबुद्धि विजेता की तरह चारों ओर देखने लगा. 

किन्तु धर्मबुद्धि क्रोधित होने का नाटक करते हुए, वृक्ष को भलाबुरा कहते हुए, उसके तने के पास पहुँच गया जहां घासफूस का गट्ठर रखा हुआ था. उसने आव देखा न ताव, उस गट्ठर को आग लगा दी. सूखी घास पल भर में धू-धू करके जलने लगी और उसका धुआं कोटर में भरने लगा. साथ ही घास के जलते हुए तिलंगे भीतर गिरने लगे. 

अब पापबुद्धि के पिता का भीतर बैठे रहना दुष्कर हो गया. बेचारे क्या करते? खांसते खांसते, आधे झुलसे हुए कोटर से बाहर कूद पड़े. लोगों ने जब यह माजरा देखा तो अवाक रह गए. किन्तु इसके साथ ही खुल गई वृक्ष की गवाही की पोल. 

न्यायाधिकारी के सामने सारा मामला स्पष्ट हो गया. पापबुद्धि को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया और उससे धर्मबुद्धि का धन बरामद कर उसे दिलवाया गया. बेचारे पापबुद्धि के पिताजी, बुरी तरह झुलसने के कारण, कुछ दिन तड़प तड़प कर स्वर्ग सिधार गए. 

इसीलिए कहा गया है कि स्वार्थी व्यक्ति स्वार्थ के चक्कर में अपनों की भी बलि चढ़ा देता है. 




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