नकली गहने - सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी कथाकार मोपासां की कहानी | Nakli Gehne - A story by Famous story writer Mopasan

 (सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी कहानीकार मोपासां - Maupassan की एक कहानी का भावानुवाद)

वह एक ग्रामीण क्षेत्र में काम करने वाले डॉक्टर की बेटी थी. जब उसके पिता की मृत्यु हो गई तो उसकी माँ उसे लेकर पेरिस आ गई. पेरिस में उसकी माँ के जितने सगे-सम्बन्धी थे, उन सबसे माँ ने उसका परिचय कराया. इसके पीछे माँ का एक ही उद्देश्य था, कि लड़की के लिए कोई योग्य वर प्राप्त हो जाए. दोनों माँ-बेटी निर्धन जरूर थीं, पर उनका शील स्वभाव बड़ा ही सहज, सुन्दर और सुरुचिपूर्ण था. 

लड़की जैसी सुन्दर थी वैसी ही गुणवती भी थी. उसके व्यवहार में कुछ ऐसी शालीनता और शिष्टता पाई जाती थी कि कोई भी सुरुचिपूर्ण व्यक्ति उसकी प्रशंसा किये बिना न रह सकता था. लावण्य से परिपूर्ण उसके सलज्ज मुख पर एक सरस स्निग्धता और कोमल कमनीयता का भाव हर समय टपकता रहता था; और उसके अधरों पर एक अव्यक्त सी मुस्कान सब समय खेलती रहती थी, वह जैसे कि उसकी अंतरात्मा की पवित्रता का आभास झलकाती रहती थी. कुछ ही समय में उसके रूप-गुणों की ख्याति चारों ओर फ़ैल गई और लोग उसके बारे में अक्सर यह कहते पाए जाते थे कि- "जो भी व्यक्ति इससे विवाह करेगा वह बहुत भाग्यशाली होगा क्योंकि इससे अच्छी स्त्री दूसरी मिलना मुश्किल है."

मोशियो लाँताँ उस लड़की से पहले पहल अपने दफ्तर के छोटे साहब के घर पर मिले थे. उसे देखते ही उन्हें उससे पहली नज़र का प्यार हो गया. मोशियो की वार्षिक आय उस समय लगभग ढाई हजार रुपये थी. उन्होंने सोचा कि इतनी आय यद्यपि पर्याप्त नहीं है, फिर भी इतने में दो प्राणी अपना जीवन-निर्वाह कर सकते हैं. उन्होंने उस सुंदरी के समक्ष अपना विवाह प्रस्ताव रखा और उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया. 

मोशियो लाँताँ उस सर्वगुणसंपन्न स्त्री को पाकर जैसे निहाल हो गए. वह घर गृहस्थी के कामों को ऐसे सुचारु ढंग से निभाती कि देखकर आश्चर्य होता. उनकी जेब से बहुत कम पैसे खर्च होते परन्तु वह उतने में ही घर के ठाट ऐसे बनाए रखती जैसे उसका विवाह किसी रईस के साथ हुआ हो. वह अपने पति की छोटी से छोटी आवश्यकता पर भी बहुत ध्यान देती और हर समय अपनी प्यार दुलार भरी बातों की बौछार किये रहती. उसके व्यक्तित्व में ऐसा विचित्र आकर्षण था कि विवाह के छः वर्ष बाद भी मोशियो लाँताँ को लगता कि जैसे पत्नी के प्रति उनका प्यार पहले की अपेक्षा बढ़ता ही जा रहा है. 

हाँ, लेकिन दो बातें उस स्त्री के स्वभाव में ऐसी थीं जो उन्हें जरा कम पसंद आती थीं - एक था थिएटर देखने के प्रति श्रीमती लाँताँ का प्रेम और दूसरा था नकली गहनों का शौक. 

उसकी सहेलियां अक्सर उसके लिए थिएटर में एक बॉक्स रिज़र्व करा लेतीं, और विवश होकर मोशियो को उसका साथ देना पड़ता. वैसे भी, दूसरों के पैसों से प्राप्त मनोरंजन के पक्षपाती मोशियो बिलकुल नहीं थे और उन्हें अपनी पत्नी का साथ देते हुए बहुत संकोच होता था. एक और बात यह भी थी कि उन्हें नाटकों में कोई विशेष रूचि न थी. 

शुरू शुरू में तो मोशियो पत्नी के साथ नाटक देखने चल देते थे फिर उन्होंने अनुरोध किया कि वह उनकी बजाय अपनी किसी सहेली को ही नाटक में साथ लेकर जाया करे. पहले तो श्रीमती लाँताँ इस पर राजी नहीं हुईं पर ज्यादा जोर देने पर मान गईं. मोशियो इस प्रकार एक बहुत बड़े झंझट से मुक्ति पाकर बड़े प्रसन्न हुए. 

नाटक देखने के शौक के साथ ही साथ श्रीमती लाँताँ का सजाव श्रृंगार के प्रति आकर्षण भी बढ़ता ही चला गया. हालांकि उसके पोशाक पहनावे में अभी भी पहले की ही तरह सादगी पाई जाती थी; पर अपने कानों में अब वह जो लोलक पहने रहती थी उसके नीचे अब बड़े बड़े चमकदार पत्थर लटका करते थे जो बिलकुल सच्चे हीरों की तरह प्रतीत होते थे. अपने गले में वह झूठे मोतियों की माला पहनने लगी थी और बांहों में नकली सोने के बाजूबंद. 

मोशियो लाँताँ उससे अक्सर स्नेहपूर्ण स्वर में समझाते हुए कहते - "जब तुम असली हीरों को खरीदने में समर्थ नहीं हो, तो नकली हीरों का मोह त्यागकर तुम्हें अपनी स्वाभाविक सुन्दरता और शालीनता से ही खुश रहना चाहिए. यही दो गुण तो स्त्री के असली आभूषण हैं."

पर वह अपने पति के इस उपदेश को अपनी सहज, स्निग्ध मुस्कान से टाल जाती और कहती - "तुम्ही बताओं मैं क्या करूं ? गहनों का शौक मुझे बचपन से है. अब वह किसी प्रकार नहीं छूटता ! यही एक कमजोरी मेरे स्वभाव में है. मैं भी इस बारे में बहुत सोचती हूँ पर गहनों का शौक मुझसे छूटना कठिन है."

मोशियो लाँताँ मुस्कुराकर रह जाते और कहते - "तुम्हारी रूचि भी कैसी निराली है ..."

जब कभी पति-पत्नी जाड़े के दिनों में अंगीठी के पास बैठे रहते तो श्रीमती लाँताँ अपने नकली गहनों से भरे चमड़े के बक्स को खोलकर उसमें एक-एक करके सब गहने निकालकर पास ही में रखी मेज पर सजाकर रखतीं और फिर प्यासी सी नजरों से उन्हें बहुत देर तक उनकी ओर एकटक देखती रहतीं. उसकी उस उत्सुकता भरी दृष्टि से ऐसा जान पड़ता जैसे कि उसके जीवन कि विशेष सुखद स्मृतियाँ उन गहनों से जुड़ी हैं. फिर वह उनमें से सहसा एक मोतियों का हार उठाकर मोशियो के गले में पहना देती और दुष्टतापूर्ण ढंग से मुस्कुराते हुए कहती - "तुम इस समय विचित्र स्वांगधारी लग रहे हो." इसके बाद वह बड़े प्यार और दुलार से मोशियो के बालों को सहलाने लगती. 

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एक दिन बड़े कडाके की ठण्ड थी. श्रीमती लाँताँ उस दिन जब देर रात नाटक देखकर आईं, तो उसे सर्दी ने पकड़ लिया. उसे बुखार आ गया. आठ दिन तक वह बिस्तर पर पड़ी रही और फिर उसकी मृत्यु हो गई. 

पत्नी की इस आकस्मिक मृत्यु उसे मोशियो लाँताँ को ऐसा सदमा लगा कि वे दुःख से विह्वल हो उठे और एक महीने में ही उनके सिर के सारे बाल पक गए. वे व्याकुल होकर दिन रात बस रोया करते. उन्हें ऐसा जान पड़ता कि प्रतिपल उनकी छाती को कोई बड़ी निर्दयता से फाड़े खाता है. पत्नी की प्रत्येक मुस्कान, प्रत्येक प्यार भरी बात, प्रत्येक अदा उन्हें याद आती रहती और उनके मर्म को छेदती रहती. 

समय जैसे जैसे बीतता गया, मोशियो का दुःख घटने के बजाय बढ़ता चला गया. दफ्तर में जब कोई उनसे पत्नी की चर्चा छेड़ बैठता तो उनकी आँखों से बरबस आंसू उमड़ पड़ते. सारा संसार उन्हें अपनी जीवनसंगिनी के बिना सूना लगने लगा और चारो ओर निराशा ही निराशा दिखाई देने लगी. 

धीरे - धीरे उन्हें अनुभव होने लगा कि पत्नी के बिना जीवन की सामान्य समस्याएँ भी अब उनसे ठीक तरह से हल नहीं होने पातीं. श्रीमती लाँताँ उनकी अत्यंत साधारण आय को भी न जाने कैसे सहेज-सहेज कर खर्च करती थीं कि उन्हें कभी एक दिन के लिए भी किसी तरह के अभाव का अनुभव नहीं हुआ; बल्कि उतनी ही आय में वह बहुत सी अनावश्यक चीज़ें जोड़कर मरी थी. पर अब मोशियो लाँताँ ने देखा कि उनका अपना निर्वाह ही उतने में नहीं हो पाता. उनकी पत्नी उतनी ही आय में कैसे बढ़िया बढ़िया खाद्य सामग्री लाकर उन्हें खिलाती थीं और खुद भी खाती थीं, यह बात उनकी समझ ही में नहीं आ पाती थी. 

खैर, मोशियो लाँताँ को क़र्ज़ लेना पड़ा और धीरे धीरे उनकी निर्धनता ने विकट रूप धारण कर लिया. एक दिन तो नौबत यहाँ तक आ गई कि उन्हें कुछ खरीदना था और उनकी जेब में एक धेला भी न था. ऐसी हालत में उन्होंने भी वही सोचा जो अन्य कोई भी सोचता. उन्होंने घर की कोई चीज़ बेचकर रुपयों का प्रबंध करने का निश्चय किया. 

अकस्मात् उन्हें याद आया कि उनकी पत्नी के नकली गहने उनके पास पड़े हैं. इन गहनों के प्रति शुरू से ही एक विद्वेष का भाव उनके मन में विद्यमान था. ये गहने उनके मन में पत्नी की सुखद स्मृति जगाने के बदले उसकी हठधर्मिता और कुरुचि की याद दिलाते थे. अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वह नित्य ऐसे नए, चमकीले और भड़कीले गहनों को खरीदकर अपने बक्स का बोझ भारी करती चली गई थी, जिनका मोल कम से कम उसके पति की नजरों में कुछ भी नहीं था. इसलिए मोशियो लाँताँ ने उन गहनों को बेच देने का निश्चय किया. 

सबसे पहले उन्होंने मोती की लड़ियों वाले एक हार को बेचना चाहा, जिसका मूल्य उनके हिसाब चार - पांच रुपये के आसपास रहा होगा. उसे अपनी जेब में डालकर वे एक जौहरी की दूकान में जा घुसे. नकली मोतियों का वह हार जौहरी को दिखाते हुए उन्हें बहुत संकोच हो रहा था, पर जी कड़ा करके आखिर उन्होंने उसे जौहरी के सामने रख ही दिया. 

"यह हार कितने का होगा, क्या आप बताने की कृपा करेंगे ?" उन्होंने बहुत साहस करके पूछा. 

जौहरी उस हार को उठाकर बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से उसे परखने लगा. उसे अच्छी तरह से उलटपुलट कर परखने में बड़ी देर लग रही थी. मोशियो लाँताँ अधीर होकर यह कहना ही चाहते थे कि, "मुझे मालूम है इस नकली हार का मूल्य बहुत ज्यादा नहीं हो सकता है ;" पर वह कुछ कह पाते इससे पहले जौहरी बोल उठा, "महाशय, इस हार का मूल्य पंद्रह हजार फ्रैंक के लगभग है. पर इसे खरीदने के पहले मैं यह जानना चाहूँगा कि यह आपको कहाँ से मिला है ?"

मोशियो लाँताँ आँखें फाड़-फाड़ कर जौहरी की ओर देखते रह गए. उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. हकलाते हुए उन्होंने कहा, "आपने इसे अच्छी तरह से देख लिया है न ? क्या आप निश्चित रूप से कह सकते हैं कि इसका मूल्य इतना ही है ?"

जौहरी बोला, "इससे ज्यादा कोई दे, तो आप जाकर पता लगा लीजिये. किन्तु यदि पंद्रह हजार में ही देना तो आप मुझे ही दीजियेगा."

मोशियो लाँताँ भौचक्के से रह गए और हार को जेब में डालकर चुपचाप दुकान से बाहर चले आये. उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. कुछ समय बाद वे एक दूसरी सड़क पर स्थित दूसरे जौहरी की दुकान पर पहुंचे. उस दुकान के मालिक ने जैसे हार देखा, वैसे ही बोल उठा, "अरे वाह, यह तो हमारी ही दुकान का हार है. हमने ही इसे बेचा है." 

मोशियो लाँताँ ने पूछा - "आपने इसे कितने में बेचा था ?"

"बीस हजार फ्रैंक में, " दुकानदार ने जवाब दिया, "पर यदि आप इसे बेचना चाहते हैं तो मैं आपको इसके अठारह हजार ही दे पाऊँगा. लेकिन उसके पहले आपको यह बताना होगा कि यह हार आपके पास कैसे और कहाँ से आया ?"

मोशियो लाँताँ से अब न रहा गया. उन्होंने अपना संदेह जाहिर कर ही दिया. बोले, "पर ... पर ... मैं अभी तक इस संदेह में पड़ा हुआ हूँ कि यह एक नकली हार है !"

जौहरी ने उनका नाम और पता पूछा. फिर अपना पुराना रजिस्टर देखा. देखने के बाद उसने कहा - "बिलकुल ठीक है. यह हार श्रीमती लाँताँ के नाम उसी पते पर भेजा गया है जो आपने अभी बताया है."

मोशियो लाँताँ भौचक्के से जौहरी के मुँह की देखते ही रह गए. उनकी यह भावभंगिमा देखकर जौहरी को चोरी का संदेह होने लगा. वह बोला - "आप इस हार को चौबीस घंटे के लिए यहीं छोड़ जाइए. मैं आपको इसकी रसीद देता हूँ."

जौहरी ने जैसा कहा, मोशियो लाँताँ ने वैसा ही किया और डगमगाते क़दमों से भ्रांत चित्त से दुकान से बाहर चले आये. बाहर आकर वे आकाश पाताल की बातें सोचने लगे. उनकी पत्नी उनकी साधारण आय से पैसे बचाकर इतना मंहगा हार नहीं खरीद सकती, यह तो ध्रुव सत्य था. अवश्य ही यह हार किसी ने उसे भेंट किया होगा. परन्तु वह कौन हो सकता है जिसने इतना मूल्यवान हार उसे भेंट किया ? और सबसे बड़ी बात, क्यों किया ? किस कारण से किया ?

सोचते सोचते वे सड़क के बीच में खड़े हो गए. एक भयंकर संदेह उनके मन में कांटे की तरह गड़ गया. साथ ही यह संभावना भी उनके मन में जाग पड़ी कि उनकी स्त्री के जितने भी गहने उनके पास हैं वे सब के सब उसे उपहार के रूप में ही प्रदान किये गए होंगे. उनका सिर चक्कर खाने लगा. सारी पृथ्वी, सारा आकाश उन्हें घूमता हुआ सा नजर आने लगा. वे अचेत होकर गिर पड़े. जब होश आया, तब उन्होंने अपने आपको एक दवाखाने में पड़ा पाया. 

किसी तरह वे घर पहुंचे और अपने कमरे में जाकर, दरवाजा बंद करके बिलख बिलख कर रोने लगे. 

.....................

दूसरे दिन, रात भर की अनिद्रा के बद जब वे उठे, तब उनकी मानसिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे दफ्तर जा सकें. इतने भयंकर धक्के के बाद दफ्तर जाकर काम करना, असंभव नहीं तो कठिन अवश्य था. सहसा उन्हें याद आया कि उनकी पत्नी का हार जौहरी के यहाँ पड़ा हुआ है. हार की याद आ जाने पर पत्नी के प्रति संदेह का भूत एक बार फिर जाग उठा और उन्होंने सोच लिया कि कुछ भी हो जाए उस हार को लेने नहीं जायेंगे. फिर दिमाग में आया कि इतना मूल्यवान हार जौहरी के यहाँ छोड़ देने से भी क्या लाभ होगा ? बल्कि जो भी लाभ होगा वह जौहरी को होगा. यही सोचकर वे कपडे पहनकर जौहरी की दुकान की ओर चल पड़े. 

बड़ा सुहावना दिन था. स्वच्छ नीला आकाश ऊपर से सारे नगरवासियों पर मधुर मुस्कान की बौछार कर रहा था. धनी पुरुष, जिन्हें संसार के रात-दिन के कर्मचक्र की तकलीफों से कोई सरोकार न था, अपनी बग्घियों में सवार होकर सैर करने के लिए निकल पड़े थे. उनमें से कुछ अपनी जेबों में हाथ डालकर बागों में टहल रहे थे. उनके चेहरों से सुख और संतोष के भाव स्पष्ट झलक रहे थे. 

मोशियो लाँताँ सोचने लगे - "धनी लोग ही वास्तव में सुखी हैं. धन के रहने से मनुष्य बड़े से बड़ा दुःख भी सहज ही में भूल सकता है. जहां चाहे वहाँ भ्रमण कर सकता है, जैसा चाहे वैसा कर सकता है. काश, मैं भी धनी होता !"

उन्हें भूख लग रही थी, मगर उनकी जेब खाली थी. उन्हें फिर से हार की याद आई. अठारह हजार फ्रैंक ! इतनी बड़ी रकम से एक आदमी का जीवन बन सकता है. 

सोचते-सोचते वे जौहरी की दुकान के पास पहुँच गए. पहले तो उन्हें भीतर जाने में झिझक महसूस हुई, पर तभी भूख ने जोर मारा, और वे लाज शर्म सब एक ही घूँट में पीकर भीतर घुस गए. उन्हें देखते ही जौहरी ने तपाक से उनका स्वागत किया और एक कुर्सी पर उन्हें बिठाकर बोला - "मैंने जांच करके सब बातों का पता लगा लिया है. मैंने जितनी रकम आपको देने को कहा था, वह मैं आपको बड़ी ख़ुशी से देने को तैयार हूँ."

मोशियो लाँताँ ने अपनी स्वीकृति प्रकट की. जौहरी ने तुरंत हजार- हजार फ्रैंक के अठारह नोट उन्हें दे दिए और उनसे रसीद ले ली. रकम लेकर मोशियो लाँताँ जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक उन्हें एक बात याद आई. कुछ संकोच के साथ वे जौहरी से बोले - "मेरे पास और भी कुछ गहने हैं जो मुझे उसी जरिये से प्राप्त हुए हैं. क्या आप उन्हें भी खरीदना पसंद करेंगे ?"

जौहरी ने कहा - "अवश्य".

मोशियों लाँताँ सीधे अपने घर गए और करीब एक घंटे बाद अपने साथ बहुत से गहने लेकर दुकान पर पहुंचे. 

हीरे के लोलकों का मूल्य बीस हजार फ्रैंक बताया गया; चूड़ियां पैंतीस हजार की निकलीं; नीलामों और पुखराजों के एक सेट का मूल्य चौदह हजार आँका गया; कीमती पत्थरों से जड़ा एक सोने का हार पैंतालीस हजार का निकला. इस प्रकार कुल रकमों का योग एक लाख तैंतालीस हजार फ्रैंक तक पहुँच गया. 

जौहरी ने व्यंग्य और परिहास के स्वर में कहा - "जिस व्यक्ति से  आपको ये गहने मिले हैं, मालूम होता है उन्होंने अपने सारे जीवन की कमाई मूल्यवान पत्थरों के संचय में लगा दी थी."

पर मोशियो लाँताँ ने इसका उत्तर बड़े गंभीर स्वर में दिया - "यह अपनी पूँजी को सुरक्षित रखने का एक ढंग है."

उस दिन मोशियो लाँताँ ने एक प्रतिष्ठित रेस्तरां में जाकर बढ़िया खाना खाया और उम्दा किस्म की शराब पी. इसके बाद वे एक बड़े पार्क में वायुसेवन के लिए निकल पड़े. बग्घियों में स्वर स्त्रीपुरुषों को देखकर अब उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न नहीं हो रही थी. वे मन ही मन उन लोगों को संबोधित करते हुए कह रहे थे - "मैं भी अब तुम लोगों के समान धनी हो गया हूँ. मेरे पास इस समय लगभग दो लाख फ्रैंक नगद पड़े हुए हैं."

सहसा उन्हें अपने दफ्तर की याद आई. वे एक किराए की गाड़ी में सवार होकर दफ्तर की ओर चल दिए. वहाँ अपने बड़े साहब से वे जाकर मिले और बोले - "मैं नौकरी से इस्तीफ़ा देने के लिए आपके पास आया हूँ. मुझे एक तीन लाख फ्रैंक की वसीयत अभी अभी प्राप्त हुई है."

अपने भूतपूर्व साथियों से हाथ मिलाकर मोशियो लाँताँ कुछ देर गप्पें लड़ाते रहे, फिर वहाँ से चले आये. 'काफे आग्ले' नामक रेस्तरां में उन्होंने डटकर भोजन किया  वहाँ वे शहर के एक प्रतिष्ठित रईस की बगल में बैठे थे और बातों ही बातों में उन्होंने उसे भी सूचित कर दिया कि उन्हें हाल ही में एक चार लाख फ्रैंक की वसीयत प्राप्त हुई है. 

उस दिन वे नाटक देखने भी गए. अपनी इच्छा से नाटक देखने वे जीवन में आज पहली बार गए थे. उस दिन जिस नाटक का मंचन हुआ, यद्यपि वह बहुत साधारण था, परन्तु उसे देखकर उन्हें बड़ा आनंद प्राप्त हुआ. नाटक देखने के बाद वे नृत्य में सम्मिलित हो गए और रात भर आनंद की तरंगों में बहते रहे. 

छः महीने बाद उन्होंने दूसरा विवाह किया. उनकी यह नई पत्नी बड़ी सीधी-सादी थी और उनकी पहली पत्नी की तरह चिकनी चुपड़ी बातें करना नहीं जानती थी. यही कारण था कि मोशियो लाँताँ उससे प्रसन्न न थे. 




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