मरम्मत - आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी | Marammat - Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani

 'दशहरे की छुट्टियों में भैया घर आ रहे हैं, उनके साथ उनके एक मित्र भी हैं, जब से यह सूचना मिली है घरभर में आफत मची है। कल दिनभर नौकर-चाकरों की कौन कहे, घर के किसी आदमी को चैन नहीं पड़ा। दीना की मां को चार दिन से बुखार आ रहा था, पर उस बेचारी पर भी आफत का पहाड़ टूट पड़ा। दिनभर गरीब चूल्हे पर बैठी रही। कितने पकवान बनाए गए, कितनी जिन्स तैयार की गई हैं बाप रे ! भैया न हुए, भीमसेन हुए। दुलारी उनके लिए, और उनके उस निखट्टू दोस्त के लिए कमरा झाड़ रही है, रामू और रग्घू वहां रूमाल, तौलिए, सुराही, चाय के सेट, चादर, बिछौने और न जाने क्या-क्या सरंजाम जुटाते रहे। रातभर खटखट रही। अभी दिन भी नहीं निकला और बाबूजी आंगन में खड़े गरज रहे हैं। सईस को गालियां सुनाई जा रही हैं-अभी तक गाड़ी स्टेशन पर नहीं गई। फिटिन भी जानी चाहिए और विक्टोरिया भी। कहो जी, अकेला सईस दो-दो गाड़ियां कैसे ले जाएगा। फिर भैया ऐसे कहां के लाट साहब हैं, एक गाड़ी क्या काफी नहीं ? उनके वे दोस्त भी कोई आवारागर्द मालूम देते हैं, छुट्टियों में अपने घर न जाकर पराये घर आ रहे हैं, ईश्वर जाने उनका घर है भी या नहीं।'

रजनी आप-ही-आप बड़बड़ा रही थी। सूरज निकल आया था, धूप फैल गई थी, पर वह अभी बिछौने ही पर पड़ी थी। उसके कमरे में कोई नौकर-नौकरानी नहीं आई थी, इसीसे वह बहुत नाराज हो गई थी। एक हल्की फिरोजी ओढ़नी उसके सुनहरे पर अस्तव्यस्त पड़ी थी, चिकने और चूंघर वाले बाल चांदी के समान मस्तक पर बिखर रहे थे। बड़ी-बड़ी आंखें भरपूर नींद का सुख लूटकर लाल हो रही थीं। गुस्से से उसके होंठ सम्पुटित हो गए थे, भौंहों में बल थे, वह पलंग पर औंधी पड़ी थी। एक मासिक पत्रिका उसके हाथ में थी। वह तकिये पर छाती रक्खे अनमने भाव से उसके पन्ने उलट रही थी।

रजनी की मां का नाम सुनन्दा था। खूब मोटी ताजी, गुद-गुदी ठिगनी स्त्री थीं। जब वे फुर्ती से काम करतीं तो उनका गेंद की तरह लुढ़कता शरीर एक अजब बहार दिखाता था। वह एक सुगृहिणी थीं, दिनभर काम में लगी रहती थीं। उनके हाथ बेसन में भरे थे और पल्ला धरती में लटक रहा था। उन्होंने जल्दी-जल्दी आकर कहा- 'वाह री रानी, बेटी तेरे ढंग तो खूब हैं। भैया घर में आ रहे हैं, दस काम अटके पड़े हैं और रानीजी पलंग पर पड़ी किताब पढ़ रहीं हैं। उठो ज़रा, रमिया हरामजादी आज अभी तक नहीं आई। जरा गुसलखाने में धोती,गमछा, साबुन सब सामान ठिकाने से रख दो-भैया आकर स्नान करेंगे। उठ तो बेटी! अरी, पराये घर तेरी कैसे पटेगी !'

रजनी ने सुनकर भी मां की बात नहीं सुनी, वह उसी भांति चुपचाप पड़ी रही। गृहिणी जाती-जाती फिर रुक गईं। उन्होंने कहा-'रजनी सुनती नहीं, मैं क्या कह रही हूं। भैया...।'

रजनी गरज उठी—'भैया, जब देखो, भैया, भैया आ रहे हैं तो मैं क्या करूं? छत से कूद पडूं ? या पागल होकर बाल नोच डालूं ? भैया आ रहे हैं या गांव में शेर घुस आया है ? घरभर ने जैसे धतूरा खा लिया हो। भैया आते हैं तो आएं ! इतनी आफत क्यों मचा रखी है ?

क्षणभर को गृहिणी अवाक् हो रहीं, उन्होंने सोचा भी न था कि रजनी भैया के प्रति इतना विद्रोह रखती है। भैया तो हर बार ही पत्र में रजनी की बात पूछता है। आने पर वह अधिक देर तक उसीके पास रहता है, बातें करता है, प्यार करता है। उन्होंने क्रुद्ध दृष्टि से पुत्री की ओर देखकर कहा- "भैया का आना इतना दुख रहा है रजनी!'

"भैया का आना तो नहीं, तुम लोगों की यह हाय-हाय जरूर दुख रही है।'

'क्यों दुख रही है री?

"भैया घर में आ रहे हैं तो इतनी उछल-कूद क्यों हो रही है ?

'भैया घर में आ रहे हैं तो हो नहीं? क्या मेरे दस-पांच हैं ? एक ही मेरी आंखों का तारा है । छः महीने में आ रहा है। परदेश में क्या खाता-पीता होगा, कौन जाने । उसे बड़ियां बहुत भाती हैं, मेरे हाथ की कढ़ी बिना उसे रसोई सूनी लगती है, आलू की कचौरी का उसे बहुत शौक है, यह सब इसीसे तो बना रही हूं। फिर इस बार आ रहे हैं उसके कोई दोस्त । रईस के बेटे होंगे। उनकी खातिर न करूं?

'करो फिर । मेरा सिर क्यों खाती हो?'

'मैं सिर खाती हूं, अरी तेरा सिर तो इन-किताबों ने ही खा डाला है। मां को ऐसे जवाब देती है ! दोपहर हो गया, पलंग से नीचे पैर नहीं देती। भैया के आने से पहले माथे पर बल पड़ गए'

रजनी ने वक्र दृष्टि से मां की और देखकर गुस्से में आकर छाती के नीचे का तकिया दीवार में दे मारा, मासिक पत्रिका फेंक दी। उसने तीखी वाणी में कहा-'मैं भी तो आई थी छ: महीने में; तब तो इतनी धूम नहीं थी।'

'तू बेटी की जात है बेटी-बेटा क्या बराबर हैं ?'

'बराबर क्यों नहीं हैं ?

'अब मैं तुझसे मुंहजोरी करूं कि काम?'

'काम करो। बेटियां पेट से थोड़े ही पैदा होती हैं। घूरे पर से उठाकर लाई जाती हैं। उनकी प्रतिष्ठा क्या, इज्जत क्या, जीवन क्या? मर्द दुनिया में बड़ी चीज है। उनका सर्वत्र स्वागत है।'

रजनी रूठकर शाल को अच्छी तरह लपेटकर दूसरी ओर मुंह करके पड़ी रही, गृहिणी बकझक करती चली गईं।

उनका नाम था राजेन्द्र और मित्र का दिलीप। दोनों मित्र एम० ए० फाइनल में पढ़ रहे थे। नौ बजते-बजते दोनों मित्रों को लेकर फिटिन द्वार पर आ लगी। घर में जो दौड़-धूप थी वह और भी बढ़ गई। पिता को प्रणाम कर राजेन्द्र मित्र के साथ घर में आए। माता ने देखा तो दौड़कर ऐसे लपकी जैसे गाय बछड़े को देखकर लपकती है। अपने पुत्र को छाती से लगा, अश्रु-मोचन किया। मुख, सिर, पीठ पर हाथ फेरा, पत्र न भेजने के, अम्मा को भूल जाने के दो-चार उलाहने दिए। राजेन्द्र ने सबके बदले में हंसकर कहा---'देखो अम्मा, इस बार मैंने खूब दूध-मलाई खाई है, मैं कितना तगड़ा हो आया हूं। इस दिलीप को तो मैं यूं ही उठाकर फेंक सकता हूं।'

गृहिणी ने इतनी देर बाद पुत्र के मित्र को देखा। दिलीप ने प्रणाम किया, गृहिणी ने आशीर्वाद दिया। इसके बाद उन्होंने कहा-'बैठक में चलकर थोड़ा पानी पी लो, पीछे और बातें होंगी।

राजेन्द्र ने पूछा---'वह लोमड़ी कहां है...रजनी?' वह ठहाका मा रकर हंस दिया---'आओ दिलीप, मैं तुम्हें लोमड़ी दिखाऊं।' कहकर उस ने मित्र का हाथ खींच लिया। दोनों जीने पर चढ़ गए। गृहिणी रसोई में चली गईं।

राजेन्द्र ने रजनी की कोठरी के द्वार पर खड़े होकर देखा वह मुंह फुलाए कुर्सी पर बैठी है। घर के आनन्द-कोलाहल से उसे जा विरक्ति हो रही थी वह अभी भी उसके मुख पर थी। अब एका-एक भाई और उसके मित्र को भीतर आते देखकर उठ खड़ी हुई। उसने मुस्कराकर भाई को प्रणाम किया।

राजेन्द्र ने आगे बढ़कर उसके दोनों कंधे झकझोर डाले, फिर दिलीप से कहा--'दिलीप, यही हमारी लोमड़ी है। इसके सब गुण तुमको अभी मालूम नहीं। सोने में कुम्भकरण, खाने में भीमसेन, लड़ने में सूर्पनखा और पढ़ने में बण्टाढार! पर न जाने कैसे बी० ए० में पहुंच गई। इस साल यह बी० ए० फाइनल में जा रही है। क्लास में सदा प्रथम होकर इनाम पाती रही है।'

दिलीप ने देखा एक चम्पकवर्णी सुकुमार किशोरी बालिका जिसका अल्हड़पन उसके अस्तव्यस्त बालों से स्पष्ट हो रहा है, राजेन्द्र ने कैसी कदर्प व्याख्या की है। भाई-बहिन का दुलार भी बड़ा दुर्गम है। वह शायद गाली-गुफता धौल-धप्पा से ही ठीक-ठीक अमल में लाया जा सकता है।

दिलीप आश्चर्यचकित होकर रजनी को देखकर मुस्करा रहा था। उसे कुछ भी बोलने की सुविधा न देकर राजेन्द्र ने रजनी की ओर देखकर कहा–-'और यह महाशय, मेरे सहपाठी, कहना चाहिए मेरे शिष्य हैं। रसगुल्ला खिलाने और रसगुल्ले से भी मीठी गप्पें उड़ाने में एक हैं। जैसी तू पक्की लोमड़ी है, वैसे ही यह पक्के गधे हैं। मगर यूनिवर्सिटी की डिग्री तो लिए ही जाते हैं, खाने-पीने में पूरे राक्षस हैं। ज़रा बन्दोबस्त ठीक-ठीक रखना।'

राजेन्द्र ही-ही करके हंसने लगा। फिर उसने दिलीप के कंधे पर हाथ रखकर कहा--'दिलीप, रज्जी हम लोगों की बहिन है, ज्यादा शिष्टाचार की जरूरत नहीं, बैठो और बेतकल्लुफ 'तुम' कहकर बातचीत करो।'

जब तक राजेन्द्र कहता रहा, रजनी चुपचाप सिर नीचा किए सुनती रही, एकाध बार वह मुस्कराई भी, पर एक अपरिचित युवक के सामने इतनी घनिष्ठता पसन्द नहीं आई।

दिलीप ने अब कहना शुरू किया--'रज्जी, तुम्हारा परिचय पाकर मुझे बड़ा आनन्द हुआ। राजेन्द्र ने बार-बार तुम्हारी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की थी। अब मुझे यहां खींच भी लाए। बड़े हर्ष की बात है कि तुम अपने कालेज में प्रथम रहती रही हो, तुम नारीरत्न हो, मैं तुम्हें देखकर बहुत प्रभावित हुआ हूं।'

रजनी ने उनका उत्तर न देकर केवल मुस्करा भर दिया, फिर उसने भैया से कहा--'जलपान नहीं हुआ न, यहीं ले आऊं?' वह जाने लगी तब दुलारी ने आकर कहा--'भैया जलपान बैठक में तैयार है।'

राजेन्द्र ने कहा--'यहीं ले आ। तुम ठहरो रजनी, दुलारी ले आएगी।'

तीनों के बैठ जाने पर राजेन्द्र ने कहा--'रजनी, तुम अभी तक अपने कमरे में क्या कर रही थीं?'

'मैं विद्रोह कर रही थी।' रजनी ने तिरछी नजर से भाई को घूरकर और होंठों पर वैसी ही मुस्कान भरकर कहा।

'वाह रे, विद्रोह, जरा सोच-समझकर कोई बात कहना, दिलीप के पिता सी० आई० डी० के डिप्टी सुपरिटेंडेंट हैं।

'मैं तो खुला विद्रोह करती हूं, षड्यन्त्र नहीं।'

'किसके विरुद्ध यह खुला विद्रोह है?'

'तुम्हारे विरुद्ध।'

'मेरे विरुद्ध? मैंने क्या किया है?'

'तुम पुरुष हो न?'

'इसमें मेरा क्या अपराध है? मुझे रजनी बनने में कोई उज्र नहीं, यदि तुम राजू बन सको।'

'मै पुरुष नहीं बनना चाहती हूं, पुरुषों के विरुद्ध विद्रोह किया चाहती हूं।'

'किसलिए?'

'इसलिए कि पुरुष क्यों सब बातों में सर्वश्रेष्ठ बनते हैं, स्त्रियां क्यों उनसे हीन समझी जाती हैं।'

दिलीप अब तक चुप बैठा था, अब वह जोश में आकर हथेली पर मुक्का मारकर बोला--'ब्रेवो, रज्जी, मैं तुम्हारे साथ हूं।'

'मगर मैं तुम दोनों का मुकाबला करने को तैयार हूं। पुरुष श्रेष्ठ हैं और श्रेष्ठ रहेंगे।' राजेन्द्र ने पैंतरा बदलकर नकली क्रोध और गम्भीरता से कहा। फिर उसने ज़रा हंसकर कहा--'मगर यह विद्रोह उठा कैसे रजनी?'

रजनी ने नथुने फुला और भौंहों में बल डालकर कहा--'कल से अम्मा ने और बाबूजी ने घर भर को सिर पर उठा रखा है। पचास तो पकवान बनाए हैं, रातभर खटखट रही। नौकर- चाकरों की नाक में दम। भैया आ रहे हैं, भैया आ रहे हैं। मैं भी तो आती हूं, तब तो कोई कुछ नहीं करता। तुम पुरुष लोगों की सब जगह प्रधानता है, सब जगह इज्जत है। मैं इसे सहन नहीं करूंगी।' रजनी ने खूब जोर और उबाल में आकर यह बात कही।

सब कैफियत सुनकर राजेन्द्र हंसते-हंसते लोटपोट हो गया। उसने कहा--'ठहर, मैं अभी तेरा विद्रोह दमन करता हूं।'

वह दौड़कर नीचे गया और क्षणभर ही में एक बड़ा-सा बंडल ला, उसे खोल उसमें से साड़ियां, कंधे, लेवेंडर, सेंट, क्रीम और न जाने क्या-क्या निकाल-निकालकर रजनी पर फेंकने लगा। यह सब देख रजनी खिलखिलाकर हंस पड़ी। विद्रोह दमन हो गया।

दुलारी जलपान ले आई। तीनों बैठकर खाने लगे। राजेन्द्र ने कहा--'कहो, विद्रोह कैसे मजे में दमन हुआ!'

'वह फिर भड़क उठेगा।'

'वह फिर दमन कर दिया जाएगा।'

'पर इस दमन में कितना गोला-बारूद खर्च होता है।'

'दमन करके शान भी कितनी बनती है।'

एक बार फिर तीनों प्राणी ठहाका मारकर हंस दिए। जलपान समाप्त हो गया।

दिलीप बाबू और रजनी में बड़ी जल्दी पट गई। राजेन्द्र बाबू तो दिनभर गांव की जमींदारी की, खेतों की मटरगश्त लगाते और दिलीप महाशय लाइब्रेरी में आरामकुर्सी पर रजनी की प्रतीक्षा में पड़े रहते। अवकाश पाते ही रजनी वहां पहुंच जाती। उसके पहुंचते ही बड़े जोर-शोर से किसी सामाजिक विषय पर विवाद छिड़ जाता, पर सबसे प्रधान विषय होता था स्त्री स्वतन्त्रता। इस विषय पर दिलीप महाशय रजनी का विरोध नहीं करते थे, प्रश्रय देते थे और यदि बीच में राजेन्द्र आ पड़ते तो उनसे जब रजनी का प्रबल वाग्युद्ध छिड़ता तो दिलीप सदैव रजनी को ही बढ़ावा देते रहते। तब क्या राजेन्द्र दकियानूसी विचारों के थे? नहीं वे तो केवल विवाद के लिए विवाद करते थे। भाई-बहिन में प्रगाढ़ प्रेम था। रजनी को राजेन्द्र प्राण से बढ़कर मानते। यह बात दिलीप के मन में घर कर गई। राजेन्द्र एक सच्चे उदार और पवित्र विचारों के युवक थे, और रजनी एक चरित्रवती सतेज बालिका थी। शिक्षा से उसका हृदय उत्फुल्ल था,उसके उज्ज्वल मस्तक पर प्रतिभा का तेज था। वह जैसे भाई के सामने निस्संकोच भाव से आती, जाती, हंसती, रूठती, भागती, दौड़ती, बहस करती और बिगड़ती थी, उसी भांति दिलीप के सामने भी। वह यह बात भूल गई थी कि दिलीप कोई बाहर का आदमी है।

परन्तु दिलीप के रक्त की उष्णता बढ़ रही थी। उसकी आंखों में गुलाबी रंग आ रहा था। वह अधिक-से-अधिक रजनी के निकट रहना, उसे देखना, और उसकी बातें सुनना चाहता था। उसका यह अनुराग और आसक्ति रजनी पर तुरन्त ही प्रकट हो गई। वह चौकन्नी हो गई। वह एक योद्धा प्रकृति की लड़की थी। ज्योंही उसे पता चला कि भैया के यह लम्पट मित्र प्रेम की लहर में आ गए हैं, उसने उन्हें ज़रा ठीक तौर पर पाठ पढ़ाने का निश्चय कर लिया। कालेज और बोडिंग में रहने वाले छात्रों की लोलुप और कामुक प्रवृत्ति का उसे काफी ज्ञान था। वह स्त्री जाति की रक्षा के प्रश्न पर विचार कर चुकी थी। वह इस निर्णय पर पहुंच चुकी थी कि स्त्रियों को अपने सम्मान की रक्षा के लिए मर्दो का आसरा नहीं तकना चाहिए। वह जब भाई से इस विषय पर जोर-शोर से विवाद करती थी, तब आवेश में उसका मुंह लाल हो जाता था। राजेन्द्र को तो उसे इस प्रकार उत्तेजित करने में आनन्द आता था, किन्तु दिलीप महाशय अकारण ही उसका समर्थन करते-करते कभी-कभी तो अपना व्यक्तित्व ही खो बैठते थे।

रजनी ने उन महाशय को प्रेम का खरा सबक सिखाने का पक्का इरादा कर लिया। ये स्कूल-कालेज के गुण्डे लड़कियों को मिठाई से ज्यादा कुछ समझते ही नहीं। देखते ही उनकी लार टपक पड़ती है, वे निर्लज्ज की भांति उनकी मिलनसारी,उदारता, और कोमलता से लाभ उठाते हैं। रजनी होंठ काटकर यह सोचने लगी कि आखिर ये पुरुष स्त्रियों के अपमान का साहस ही किसलिए करते हैं। स्त्रियों के सामने जमनास्टिक की कसरत-सी करना तो इन लफंगों का केवल नाटक है। रजनी देख चुकी थी कि उसे अपने कालेज जीवन में इन उद्दण्ड युवकों से कितना कष्ट भोगना पड़ा था। वे पीठ पीछे लड़कियों के विषय में कितनी मनमानी अपमानजनक बातें किया करते हैं। उनकी मनोवृत्तियां कितनी गन्दी होती हैं। उसने पहचान लिया कि भैया के मित्र भी उसी टाइप के हैं और उनकी अच्छी तरह मरम्मत करके उनके इस टपंकते हुए प्रेम को हवा कर देने की उसने प्रतिज्ञा कर ली। उसने अपनी सहायता के लिए घर की युवती दासी दुलारी को मिलाकर सब प्रोग्राम ठीक-ठाक कर लिया।

उस दिन राजेन्द्र पिता के साथ देहात में जमींदारी के कुछ जरूरी झंझट सुलझाने गए थे। घर में गृहिणी, नौकर-नौकरानी ही थीं। गृहिणी पुत्री को इतना स्वतन्त्र देखकर बड़बड़ाती तो थीं, पर कुछ रोक-टोक नहीं करती थीं। दिलीप के साथ रजनी निस्संकोच बातें करती है, बैठी रहती है, ताश खेलती है, चाय पीती है, इन सब बातों को उनका मन सहन कर गया था। वह साधारण पढ़ी-लिखी स्त्री थीं, पर पुत्री ने कालेज की शिक्षा पाई है, यह वह जानती थीं, डरती भी थीं। फिर रजनी सुनती किसकी थी!

दिलीप को राजेन्द्र ने साथ ले जाने को बहुत जिद की थी, पर वह बहाने बनाकर नहीं गया। जब वह बहाने बनाकर असमर्थता दिखा रहा था, तब रजनी उसकी ओर तिरछी दृष्टि करके मुस्करा रही थी। उसका कुछ दूसरा ही अर्थ समझकर दिलीप महाशय आनन्दविभोर हो रहे थे। प्रगल्भा रजनी अपनी इस विजय पर मन-ही-मन हंस रही थी।

दिनभर मिस्टर दिलीप ने बेचैनी में व्यतीत किया। उस दिन उसने अनेक पुस्तकों को उलट-पुलट डाला। मन में उद्वेग को शमन करने और संयत रखने के लिए उन्होंने बड़ा ही प्रयास किया। अन्ततः उन्होंने खूब सोच-समझकर रजनी को एक पत्र लिखा।

रजनी उस दिन दिल जलाने को दो-चार बार उनके कमरे में घूम गई। एकाध बार वचन बाण भी मारे, मुस्कराई भी। बिल्ली जिस प्रकार अपने शिकार को मारने से पहले खिलाती है उसी भांति रजनी ने भी महाशय जी को खिलाना शुरू कर दिया।

दुलारी बड़ी मुंहफट और ढीठ औरत थी। रजनी का संकेत पाकर वह जब-तब चाहे जिस बहाने उनके कमरे में जा एकाध फुलझड़ी छोड़ आती। एक बार उसने कहा--'आज कोई और नहीं है इसलिए जीजी ने कहा है आपकी खातिरदारी का भार उन पर है। सो आप संकोच न करें। जिस चीज की आवश्यकता हो कहिए, मैं हाजिर करूं, जीजी का यही हुक्म है।'

मिस्टर दिलीप ने मुस्कराकर कहा--'तुम्हारी जीजी इस तुच्छ परदेशी का इतना ख्याल करती हैं, इसके लिए उन्हें धन्यवाद देना।'

दुलारी ने हंसकर और साड़ी का छोर आगे बढ़ाकर कहा-- 'बाबूजी, हम गंवार दासी यह बात नहीं जानतीं, यह तो आप ही लोग जानें--कहिए तो मैं जीजी को बुला लाऊं, आप उन्हें जो कहना हो, कहिए।'

दिलीप हंस पड़ा। उसने कहा--'तुम बड़ी सुघड़ औरत हो।'

दुलारी ने साहस पाकर कहा--'बाबूजी, आप हमें अपने घर ले चलिए, बहूजी की खिदमत करके दिन काट दूंगी।'

दिलीप महाशय ने जोर से हंसकर कहा--'मगर बहू रानी भी तो हों, अभी तो हम ही अकेले हैं।' इस पर दुलारी ने कपार पर भौंहें चढ़ाकर कहा--'बाप रे, गजब है, आप बड़े लोगों की भी कैसी बुद्धि है। भैया क्वारे, जीजी क्वारी, आप भी क्वारे।'

भूमिका आगे नहीं चली। गृहिणी ने दुलारी को बुला लिया। रजनी ने सब सुना तो मुस्करा दिया।

दोपहर की डाक आई। दुलारी ने पूछा--'जीजी की कोई चिट्ठी है?' दिलीप ने साहसपूर्वक मासिक पत्रिकाओं तथा चिट्ठियों के साथ अपनी चिट्ठी भी मिलाकर भेज दी और अब वह धड़कते कलेजे से परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा।

पत्र को पढ़कर रजनी पहले तो तनिक हंसी। फिर तुरन्त ही क्रोध से थर-थर कांपने लगी। पत्र में कवित्वपूर्ण भाषा में प्रेम के ज्वार का वर्णन किया गया था। एकाएक उनके मन में जो प्रेम रजनी के लिए उदय हुआ, वे रजनी के प्रति कितने आकृष्ट हुए यह सब उसमें लिखा था। वे रजनी के बिना जीवित नहीं रह सकेंगे। विरक्त हो जाएंगे या जहर खा लेंगे, यह भी लिखा था। अन्त में हाथ जोड़कर सब बातें गोपनीय रखने की प्रार्थना भी की थी।

पत्र पढ़ने पर रजनी के होंठ घृणा से सिकुड़ गए। वह सोचने लगी--यह पुरुष जाति जो अपने को स्त्रियों से जन्मतः श्रेष्ठ सम-झती है, कितनी पतित है। इन पढ़े-लिखे लोगों में भी आत्म- सम्मान नहीं। ये अपनी ही दृष्टि में गिरे हुए हैं। रजनी ने पत्र फेंक दिया। वह पलंग पर लेटकर चुपचाप बहुत-सी बातों पर विचार करने लगी।

संध्या होने पर दिलीप महाशय आसामी मूंगे का कुर्ता पहनकर घूमने को निकले। रजनी ने देखा उनका मुंह सूख रहा है, और आंखें ऊपर नहीं उठ रही हैं। वे अपराधी की भांति चुपचाप खिसक जाना चाह रहे हैं।

रजनी ने पुकारकर कहा--'कहां चले दिलीप बाबू, अभी तो बहुत धूप है। संध्या को ज़रा जल्दी लौटिएगा, हम लोग सिनेमा चलेंगे।'

रजनी की बात सुनकर ये रजनी के भाई के मित्र सभ्य महाशय ऐसे हरे हो गए, जैसे वर्षा के छींटे पड़ने से मुर्झाए हुए पौधे खिल जाते हैं। उन्होंने एक बांकी अदा से खड़े होकर ताकते हुए कुछ कहा। उसे रजनी ने सुना नहीं, वह अपना तीर फेंककर चली गई।

रजनी ने विषम साहस का काम किया। दिलीप महाशय झटपट ही लौट आए। आकर उन्होंने उत्साहपूर्ण वाणी में रजनी से कहा--'रजनी, मैं रिजर्व बॉक्स के दो टिकट खरीद लाया हूं।'

रजनी ने घृणा के भाव को दबाकर हंस दिया।

भोजन के बाद रजनी और दिलीप दोनों ही सिनेमा देखने चल दिए। गृहिणी ने कुछ भी विरोध न किया। सिनेमाघर निकट ही था, अतः पैदल ही रजनी चल दी। रास्ते में बातचीत कहीं नहीं हुई, मालूम होता था दोनों ही योद्धा अपने-अपने पैंतरे सोच रहे थे। रजनी इस उद्धत युवक को ठीक कर देना चाहती थी और दिलीप प्रेम के दलदल में बुरी तरह फंसा था। रातभर और दिनभर में जो-जो बातें उसने सोची थीं, वे अब याद नहीं आ रही थीं। कैसे कहां से शूरू किया जाए, यही प्रश्न सम्मुख था। पत्र पढ़कर भी रजनी बिगड़ी नहीं, भण्डाफोड़ भी नहीं किया, उल्टे अकेली सिनेमा देखने आई है। अब फिर सन्देह क्या और सोच क्या, अब तो सारा प्रेम उंड़ेल देना चाहिए। सुविधा यह थी कि रजनी अंग्रेजी पढ़ी स्त्री थी। शेक्सपियर, गेटे, टेनीसन और वायरन के भावपूर्ण सभी प्रेम-सन्दर्भो को समझ सकती थी पर कठिनाई तो यह थी कि शुरू कैसे और कहां से किया जाए।

रजनी ने कनखियों से देखा, दिलीप महाशय का मुंह सूख रहा है, पैर लड़खड़ा रहे हैं। रजनी ने मुस्कराकर कहा--'क्या आपको बुखार चढ़ रहा है, मिस्टर? मिस्टर दलीप, आपके पैर डगमगा रहे हैं, मुंह सूख रहा है।

दिलीप ने बड़ी कठिनता से हंसकर कहा--'नहीं नहीं, मैं तो बहुत अच्छा हूं।'

'अच्छी बात है।' कहकर रजनी ने लम्बे-लम्बे डग बढ़ाए।

बॉक्स में बैठकर भी कुछ देर दोनों चुप रहे। खेल शुरू हो गया था। शायद खेल कोई प्रसद्धि न था, इसलिए भीड़भाड़ बिल्कुल न थी। बॉक्स और रिजर्व की तमाम सीटें खाली पड़ी थीं। अपने चारों ओर सन्नाटा देखकर पहले तो रजनी कुछ घबराई, परन्तु फिर साहस करके वह अपनी कुर्सी ज़रा आगे खींचकर बैठ गई। कौन खेल है---दोनों कुछ क्षण इसी में डूबे रहे परन्तु थोड़ी ही देर में दोनों को अपना-अपना उद्देश्य याद आ गया। खेल से मन हटाकर दोनों दोनों को कनखियों से देखने लगे। एकाध बार तो नजर बचा गए, पर कब तक? अंत में एक बार रजनी खिल- खिलाकर हंस पड़ी। उसे हंसती देख दिलीप भी हंस पड़ा परन्तु उसकी हंसी में फीकापन था।

रजनी तुरन्त ही सम्भल गई। उसने कहा---'क्यों हंसे, मिस्टर?'

'और तुम क्यों हंसी रजनी?'

दिलीप ने जरा साहस करके कुर्सी आगे खिसकाई। रजनी सम्हलकर बैठ गई। उसने स्थिर अकम्पित वाणी में कहा---'मैं तो यह सोचकर हंसी कि तुम मन में क्या सोच रहे हो, वह मैं जान गई।'

'सच, रजनी तो तुमने मुझे क्षमा कर दिया?' वह आवेश में आकर खड़े होकर रजनी कुर्सी पर झुका। उसे वहीं रोककर रजनी ने कहा---'क्षमा करने में तो कुछ हर्ज नहीं है दिलीप बाबू, मगर यह तो कहो कि क्या तुम उसी खत की बात सोच रहे हो? सच कहो, तुमने जो आज खत में लिखा है, क्या वह सच है?'

दिलीप घुटनों के बल धरती पर बैठ गया, जैसा कि बहुधा सिनेमा में देख चुके हैं। भावपूर्ण ढंग से दोनों हाथ पसारकर कहा---'सचमुच रज्जी, मैं तुम्हें प्राणों से भी बढ़कर प्यार करता हूं।'

'प्राणों से बढ़कर? यह तो बड़े आश्चर्य की बात है दिलीप बाबू, इस पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता।'

'रजनी, विश्वास करो, तुम कहो तो मैं अभी यहां से कूदकर अपनी जान दे दूं।'

'इससे क्या फायदा होगा मिस्टर दिलीप, उल्टे पुलिस मुझे हत्या करने के जुर्म में गिरफ्तार कर लेगी। परन्तु मुझे तो यह ताज्जुब है कि तुम दो ही दिन में मुझे इतना प्रेम कैसे करने लगे।'

'मैं तो पहली नजर ही में तुम पर मर मिटा था।'

'तुमने क्या किसी और स्त्री को भी प्यार किया है?'

'नहीं नहीं, कभी नहीं, इस जीवन में सिर्फ तुम्हें।'

'क्यों, क्या तुम्हें कोई स्त्री मिली नहीं?'

'तुम सी एक भी नहीं, रज्जी।'

'यह तो और भी आश्चर्य की बात है। कलकत्ते में, बनारस में, इलाहाबाद में, लखनऊ में, पटने में, कहीं भी मुझ-सी कोई स्त्री है ही नहीं?"

'नहीं नहीं, रज्जी, तुम स्त्री-रत्न हो।'

'जापान में, चीन में, इंग्लैंड में, जर्मनी में, अमेरिका में, अरे! तुम तो सब देश की स्त्रियों से बाकिफ होगे?

'रज्जी, तुम सबमें अद्वितीय हो।'

'मुझे इसमें बहुत शक है मिस्टर दिलीप, एक काम करो। अभी यह प्रेम मुल्तबी रहे। तुम एक बार हिन्दुस्तान के सब शहरों में घूम-फिरकर ज़रा अच्छी तरह देख-भाल आओ। मेरा तो ख्याल है तुम्हें मुझसे अच्छी कई लड़कियां मिल जाएंगी।'

दिलीप महाशय ने ज़रा जोश में आकर कहा--'रज्जी, तुम्हारे सामने दुनिया की स्त्री मिट्टी है।'

'मगर यह तुम्हारा अपना वाक्य नहीं मालूम देता। यह तो पेटेण्ट वाक्य है। देखो, मैं ही तुम्हें दो-तीन लड़कियों के पते बताती हूं। एक तो इलाहाबाद के कस्थवेट में मेरी सहेली है। दूसरी...।'

दिलीप ने बात काटते हुए कहा--'प्यारी रज्जी, क्यों दिल को जलाती हो, इस दास पर रहम करो। मैं तुम्हारा बे दाम का चाकर हूं। अपने नाजुक और कोमल हाथों•••।'

कहते-कहते उसने रजनी के हाथ पकड़ने को हाथ बढ़ाया। इसी बीच रजनी ने तड़ाक् से एक तमाचा जो महाशय के मुंह पर जड़ा तो उजाला हो गया, पैरों की जमीन निकल गई। वह मुंह बाए वैसे ही बैठे रह गया।

रजनी ने स्थिर गम्भीर स्वर में कहा--'मिस्टर दिलीप, मैं तुम्हारी गलती सुधारना शुरू करती हूं। देखो, अब तो तुम समझ गए कि ये हाथ उतने नाजुक और कोमल नहीं हैं, जितने तुम समझे बैठे हो। कहो, तुम्हारी आंख बची या फूटी? मैंने ज़रा बचाकर ही तमाचा जड़ा था। अब दूसरी गलती भी मैं सुधारती हूं। देखो, सामने वह जो यूरोपियन लड़की बैठी है--वह मुझसे हजार दर्जे अच्छी है या नहीं। तुम दुनिया की कहते हो, मैं तुम्हें यहीं दिखाए देती हूं, कहो, है या नहीं?'

मिस्टर दिलीप की सिट्टी गुम हो रही थी, वे चेष्टा करने पर भी नहीं बोल सके। रजनी ने धीमे किन्तु कठोर स्वर में कहा--'बोल रे, अधम, वंचक, लम्पट, पढ़े-लिखे गधे, मेरी बात का जवाब दे, वरना अभी चिल्लाकर सब आदमियों को मैं इकट्ठा करती हूं।'

दिलीप ने हाथ जोड़कर धीमे स्वर में कहा--'मुझे माफ कीजिए रजनी देवी, मुझे माफ कीजिए।'

रजनी ने घृणा से होंठ सिकोड़कर कहा--'अरे, तुम्हारा तो स्वर ही बदल गया, और टोन भी। अब तुम मुझे 'तुम' कहकर नहीं पुकारोगे। 'रज्जी, नहीं कहोगे। बदमाश, तुम मित्र की बहिन की प्रतिष्ठा नहीं रख सके! तुम जैसे जानवर किसी भले घर में जाने योग्य, किसी बहू-बेटी से खुलकर मिलने योग्य हो सकते हैं?' रजनी ने यह कहकर दिलीप के दोनों कान पकड़कर खींच लिए और तड़ातड़ पांच-सात तमाचे उसके मुंह पर रसीद करके कहा---'कहो, प्रेम अब कहां है? मुझ-सी लड़की कहीं दुनिया में है या नहीं?'

'रजनी देवी, मैं आपकी शरण हूं।'

'अच्छा, अच्छा! मगर तुम तो शायद मेरे बिना जी भी नहीं सकोगे! जाओ, कुएं-नदी में डूब मरो। क्या तुम भैया को मुंह दिखा सकोगे?'

दिलीप चुपचाप धरती पर बैठा रहा।

रजनी ने लात मारकर कहा---'बोल रे बदमाश, बोल!'

दिलीप ने गिड़गिड़ाकर कहा---'धीरे, रजनी देवी, लोग सुन लेंगे तो यहां भीड़ हो जाएगी।'

रजनी ने कहना शुरू किया---'कुछ परवाह नहीं। हां, तुम क्या चाहते हो कि स्त्रियों को तुम इसी प्रकार फुसलाओ? वे या तो पर्दे में घुग्घू बनी बैठी रहें और यदि स्वाधीन वायु में जीना चाहें तो तुम्हारे जैसे सांपों से वे डसी जाएं? क्यों? भैया के साथ विवाद में तुम सदा मेरा पक्ष लेते थे सो इसीलिए? कहो? तुम समझते हो भैया उदार हैं, नहीं जानते उन्होंने मेरा, मेरी आत्मा का निर्माण किया है। यह उन्हीं का साहस था कि तुम्हें अकपट भाव से उसी भांति मेरे सम्मुख उपस्थित किया जिस भांति वे स्वयं मेरे सम्मुख आते हैं। पर तुम, नीच, लम्पट, दो दिन में ही बहिन के समान अपने मित्र की बहिन से प्रेम करने लगे! कहो, तुम्हारे घर कोई वहिन है या नहीं? इसी भांति तुम उसे पृथ्वी की अतिद्वीय स्त्री कहते हो?'

दिलीप महाशय के शरीर में रक्त की गति रुक रही थी, बोल नहीं निकलता था। उन्होंने रजनी के पैर छूकर कहा---'आह, चुप रहो, कोई सुन लेगा।'

'अरे जब तक तुम जैसे अपवित्र लुच्चे युवक हैं स्त्रियां कभी निर्भय नहीं हो सकतीं। कहो---क्या हमें संसार में हंसने-बोलने, घूमने-फिरने, आमोद-प्रमोद करने की जगह ही नहीं, हम चोर की भांति लुक-छिपकर, पापी की भांति मुंह ढंककर दुनिया में जिएं। और यदि ज़रा भी आगे बढ़ें तो तुम जैसे लफंगे उसका गलत अर्थ लगाकर अपनी वासनाएं प्रकट करें? याद रक्खो, स्त्रियों को निर्भय रहने के लिए तुम जैसे खतरनाक नर-पशुओं का न रहना ही अच्छा है। जानते हो---जब मनुष्यों ने वनों को साफ करके सभ्यता विस्तारित की थी, तब वनचर खूंखार पशुओं का सर्वनाश कर दिया था---उनके रहते वे निर्भय नहीं रह सकते थे। समूची सभ्यता वह है जहां स्त्रियां निर्भय हैं-वनचर बूंखार जानवरों के रहते मनुष्य निर्भय नहीं रह सकते थे और नगरचर गुण्डों के रहते स्त्रियां निर्भय नहीं रह सकतीं। इसलिए मैं तुम्हारे साथ वही सलूक किया चाहती हूं, जो मनुष्य ने वनचर पशुओं के साथ किया था।'

इतना कहकर रजनी ने एकाएक बड़ा-सा छुरा निकाल लिया।

छुरे को देखते ही दिलीप की घिग्घी बंध गई। वह न चिल्ला सकता था, न भाग सकता था, उसकी शक्ति तो जैसे मर गई थी। उसने रजनी के पैरों में सिर डालकर मुर्दे के से स्वर में कहा---'क्षमा कीजिए देवी, आप इस बार इस पशु को क्षमा कीजिए।'

रजनी ने धीमे गम्भीर स्वर में कहा---'क्षमा मैं तुम्हें कर सकती हूं। परन्तु तुम एक खतरनाक जानवर हो, जिन्दा रहोंगे तो जाने कितनी बहिनों को खतरे में डालोगे।'

'मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं जीवन में प्रत्येक स्त्री को बहिन के समान समझूंगा।'

'तुम्हारी प्रतिज्ञा पर मुझे विश्वास नहीं।'

'मैं कसम खाता हूं।'

'किसकी?'

'आपके चरणों की।'

'धुत् खबरदार! इतना साहस न करना।'

'परमेश्वर की।'

'नास्तिक! तुम्हारे परमेश्वर का भरोसा!'

'अपनी माता की, पिता की।'

'नहीं, मैं नहीं विश्वास करती कि तुम माता-पिता की इज्जत करते होगे।'

'आह देवी, इतना पतित न समझो।'

'तुम बड़े पतित हो।'

'तब जिसकी कहो उसकी कसम खाऊं।'

'अपने प्राणों की कसम खाओ।'

'मैं अपने प्राणों की कसम खाता हूं कि भविष्य में मैं बहिनों के प्रति कभी अपवित्र भाव नहीं आने दूंगा।'

'अच्छी बात है। फिलहाल मैं तुम्हें क्षमा करती हूं, कुर्सी पर बैठ जाओ।' रजनी ने कठिनाई से अपने होंठों की कोर में उमड़ती हंसी को रोका।

जान बची, लाखों पाए, दिलीप महाशय कुर्सी पर धम से बैठ गए। खेल चल रहा था, बाजे बज रहे थे, कोई गाना हो रहा था, पर्दे पर धमा-चौकड़ी हो रही थी, इस धूम-धाम ने और पीछे की सीट के सन्नाटे ने इस 'रजनी काण्ड' को ओर किसीका ध्यान आकृष्ट नहीं होने दिया। थोड़ी देर में इन्टरवैल हो गया, बत्तियां जल गई। प्रकाश हो गया।

रजनी ने कहा--'मैं घर जाना चाहती हूं दिलीप बाबू, आप चाहें तो यहीं ठहर सकते हैं।'

दिलीप ने आज्ञाकारी नौकर की भांति खड़े होकर कहा--

'चलिए फिर।'

रजनी चुपचाप चल दी।

दूसरे दिन तमाम दिन मिस्टर दिलीप कमरे से बाहर नहीं निकले, सिरदर्द का बहाना करके पड़े रहे। भोजन भी नहीं किया। अभी उन्हें यह भय बना हुआ था कि उस बाधिनी ने यदि राजेन्द्र से कह दिया तो गजब हो जाएगा।

संध्या समय रजनी ने उनके कमरे में जाकर देखा कि वे सिर से पैर तक चादर लपेटे पड़े हैं। रजनी ने सामने की खिड़की खोल दी और एक कुर्सी खींच ली। उस पर बैठते उसने कहा--'उठिए मिस्टर दिलीप, दिन कब का निकल चुका है और अब छिप रहा है।'

दिलीप ने सिर निकाला। उनकी आंखें लाल हो रही थीं, मालूम होता था खूब रोए हैं। उन्होंने भर्राए हुए गले से कहा--'मैं आपको मुंह नहीं दिखा सकता, मैं अपनी प्रतिष्ठा की चर्चा करने का साहस नहीं कर सकता, पर आप अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए वचन दीजिए कि आप घर में किसीसे भी यह बात नहीं कहेंगी।'

'मैं तो तुम्हें क्षमा कर चुकी, दिलीप।'

'यह कहिए, किसीसे भी नहीं कहेंगी।'

'अच्छा नहीं कहूंगी, उठो।'

'किसी से भी नहीं?'

'किसी से भी नहीं।'

'भैया से भी नहीं?'

'अच्छा, अच्छा, भैया से भी नहीं।'

'और उस दुष्टा दुलारी से भी नहीं?'

रजनी हंस पड़ी, बोली--'अच्छा, उससे भी नहीं।'

'वह जब मुझे देखती है मुंह फेरकर हंस देती है।'

'वह शायद समझती है, तुम जैसा पुरुष पृथ्वी पर और नहीं है।'

'अब जब आप क्षमा कर चुकीं, फिर ऐसी बात क्यों कहती हैं?

रजनी हंसकर चल दी।

दूसरे दिन राजेन्द्र ने आने पर देखा कि दिलीप अपना बोरिया-बसना बांधे जाने को तैयार बैठे हैं। मुंह उतरा हुआ है और वे बुरी तरह घबराए हुए हैं। राजेन्द्र ने हंसकर कहा---'मामला क्या है? बुरी तरह परेशान हो रहे हो।'

'तार आया है 'माताजी सख्त बीमार हैं। जाना पड़ रहा है।'

'देखें, कैसा तार है? अभी तो दो-चार दिन भी नहीं हुए।'

दिलीप तार के लिए टाल-टूल करके घड़ी देखने लगे। बोले---

'अभी चालीस मिनट हैं, गाड़ी मिल जाएगी।'

दिलीप के जाने की एकाएक तैयारी देखकर राजेन्द्र परेशान-से हो गए। उन्हें दिलीप की टाल-टूल से सन्देह हुआ कि शायद घर में कोई अप्रिय है।

उन्होंने रजनी को बुलाकर पूछा---'रजनी, दिलीप जा रहे हैं, मामला क्या है?

रजनी ने आकर सिर से पैर तक दिलीप को देखकर कहा---

'कह नहीं सकती, दुलारी को बुलाती हूं, उसे शायद कुछ पता हो।'

दिलीप ने नेत्रों में भिक्षा-याचना भरकर रजनी की ओर देखा। उसे देखकर रजनी का दिल पसीज गया। उसने आगे बढ़कर कहा- --'क्यों जाते हो दिलीप बाबू।'

दिलीप की आंखें भर आईं। उसने झुककर रजनी के पैर छुए और कहा---'जीजी, सम्भव हुआ तो मैं फिर जल्दी ही आऊंगा।' उन्होंने घड़ी निकाली और राजेन्द्र से कहा-- 'ज़रा एक तांगा तो मंगा दो।'

राजेन्द्र ने कहा--'तब जाओगे ही।' वे तांगे के लिए कहने बाहर चले गए। रजनी कुछ क्षण चुप खड़ी रही, फिर उसने कहा--'दिलीप बाबू, कहिए मुझ-सी कोई स्त्री दुनिया में है या नहीं?'

दिलीप ने एक वार सिर से पैर तक रजनी को देखा, फिर कहा--'अब तुम चाहे मुझे मार ही डालो, पर रजनी तुम-सी औरत दुनिया में न होगी।'

इस बार से 'तुम' और 'रजनी' का घनिष्ट सम्बोधन पाकर रजनी की आंखों से टप टप दो बूंद आंसू गिर गए। वह जल्दी से वहां से घर के भीतर चली गई।

तांगा आ गया। सामान रख दिया। गृहिणी के पैर छूकर ज्यों ही दिलीप बाबू ड्योढ़ी पर पहुंचे तो देखते क्या हैं कि रजनी टीके का सामान थाल में धरे रास्ता रोके खड़ी है। दिलीप और राजेन्द्र रुककर रजनी की ओर देखने लगे। रजनी के पास ही दुलरिया भी अपनी गहरी लाल रंग की संतरी साड़ी पहने खड़ी थी। उसके हाथ में थाल देकर रजनी ने दिलीप के माथे पर रोली-दही का टीका लगाया, चावल सिर पर बखेरे और दो-तीन दाने चने चबाने को दिए। इसके बाद उसने मुट्ठीभर बताशे दिलीप के मुख में भर दिए और वह खिलखिलाकर हंस पड़ी।

दिलीप हंस न सका। उसने उमड़ते हुए आंसुओं के वेग को रोककर फिर झुककर रजनी के पैर छुए। इसके बाद मनीबैग निकालकर थाल में डाल दिया।

राजेन्द्र ने कहा--'अरे दिलीप, तुम रजनी की इस ठग-विद्या में आ गए। मुझे भी यह इसी तरह ठगा करती है।'

दिलीप ने कहा--'बकवास मत करो। चुपचाप टिकट और तांगे के पैसे निकालो।'

इसी बीच दुलरिया ने जल से भरा लोटा और आगे बढ़ाकर कहा-'भैया, सवा रुपया इसमें भी तो डालो।'

क्षणभर के लिए दिलीप सकपका गए। उसने अपनी अंगूठी उतार कर जलपात्र में डाल दी। दुलरिया ने मृदु-मन्द मुस्कान होंठों पर बखेरकर कहा--'हमको ले चलो भैया, दुलहिन की सेवा करेंगी।'

दिलीप कुछ जवाब न देकर झपटकर भागा और राजेन्द्र का हाथ पकड़कर तांगे में जा बैठा।

दुलारी ने एक बार हंसती आंखों से रजनी को देखा, वह रो रही थी।




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